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Sunday, July 21, 2019

Water in Vedic literature


भारत में जल संचय की परम्परायें और
वैदिक साहित्य में जल

हजारों साल पहले, भारतीय मनीषियों ने वैदिक साहित्य में जल की महिमा का वर्णन किया है। इससे सम्बन्धित पूरा विवरण, वैसे तो बहुत बड़ी पुस्तक का विषय है पर पाठकों की जिज्ञासा को शान्त करने के उद्देश्य और वैदिक साहित्य में उल्लेखित पानी की महिमा से परिचित कराने के लिये कुछ उदाहरण आगे दिये जा रहे हैं।
वेद, पुराण, उपनिषद् और संहिताओं इत्यादि में जल की महत्ता, उसके औषधीय गुणों और उससे जुड़ी परम्पराओं का उल्लेख है। वैदिक साहित्य में उपरोक्त उल्लेख का कुछ अंश, आगे वर्णित हैः
ऋग्वेद (18.82.6) में उल्लेख है कि जल में सभी तत्वों का समावेष है। जल में सभी देवताओं का वास है। जल से पूरी सृष्टि, सभी चर और अचर जगत उत्पन्न हुआ है।
तमिद् गर्भ प्रथमें दध आपो
यत्र देवा समगच्छन्त विश्रवे
यजुर्वेद (27.25) में कहा गया है कि सृष्टि का बीज, सबसे पहले, जल ही में पड़ा था और उससे ही अग्नि की उत्पत्ति हुई।
आपो ह यद् वृहती र्विश्रवभायन्
गर्भ दधाना जन्यन्तीरग्निय
ब्रह्मांड के बारे में बृह्दारण्यकोपनिषद् में, पानी से जुड़ा निम्न उल्लेख उपलब्ध हैः
आपएंवदमग्न आसुरता आप सत्यसृजन्त सत्य ब्रहावहा प्रजापति
प्रजापति देवास्ते देवा, सत्य मेवायाससे................पाँच, एक
अर्थात, आरंभ में, ब्रह्मांड में जल ही जल था। उस जल ने सबका निर्माण किया, ब्रह्मा ही सब हैं। ब्रह्मा ने ही प्रजापति की सृष्टि की और प्रजापति ने देवताओं की।
ऋग्वेद की ऋचा (18.82.6) में प्राकृतिक जलचव का वर्णन है, जिसके अनुसार सूर्य की गर्मी/ताप से जल छोटे-छोटे कणों में विभक्त हो जाता है। हवा द्वारा ऊपर उठाया जाकर बादलों के रूप में परिवर्तित हो, वह बारम्बार वर्षा के रूप में धरती पर लौटता है।
आदह स्वधामनु पुर्नगर्भत्वमेरिरे
दधाना नाम यज्ञियम
वेदों ने भी उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि की है, जिसके अनुसार सूर्य एवं वायु मिलकर जल को भाप (वाष्प) में बदल कर, मेघ बनाते हैं और (मेघ से) जल, वर्षा के रूप में धरती पर लौटता है। यजुर्वेद की ऋचा (10.19) में कहा गया है कि जलचव सतत रूप से चलता है, जिसके अनुसार समुद्र से मेघ बनते हैं, मेघ पानी बरसाते हैं और जल विभिन्न सरिताओं से बहकर फिर समुद्र में पहुँच जाता है।
यजुर्वेद की ऋचा (13.53) में कहा गया है कि पानी का आश्रय स्थल हवा है। हवा, पानी को आकाश में इधर से उधर बहा कर ले जाती है। जल औषधियों में है। जल के कारण ही औषधियों की वृद्धि होती है। बादल का रूप ही जल का सार है। जल का प्रकाश विद्युत है। जल से ही विद्युत की उत्पत्ति होती है।
पृथ्वी, जल का आश्रय है। जल का सूक्ष्म रूप ही प्राण है। मन, जलीय तत्वों अर्थात् विचारों का समुद्र है। वाणी की सरसता और जीवों में आर्द्रता का कारण भी जल ही है। आँखों की देखने की ताकत और उसकी सरसता का कारण भी जल है। जल, कानों का सहवासी है।
जल का निवास पृथ्वी पर है। अन्तरिक्ष में जल व्याप्त है। समुद्र, जल का आधार है तथा समुद्र से ही जल, वाष्प बन कर वर्षा के रूप में धरती पर आता है।
अथर्व (3.7.5) में कहा गया हैः
आप इद्धा उ भेषजोरापो अभीवचातर्नी
आपस सर्वस्य भेषजो स्तास्ते सुवन्तु क्षेत्रियात
अर्थात् जल औषधि है। जल रोगों को दूर करता है। जल सब बीमारियों का नाश करता है। इसलिये, यह तुम्हें भी, सभी कठिन बीमारियों से दूर रखे।
ऋग्वेद की ऋचा (10.9.4) में कहा गया हैः
         शन्नो देवी रभिष्टये आपो
         भवन्तु पीतये
         शंयोरभिस्त्रवन्तुनः
अर्थात्, हे ईश्वर, दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिये सुखदायी हो, अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति करावे, हमारी प्यास बुझाये, सम्पूर्ण बीमारियों का नाश करे, रोगजनित भय से मुक्त करे तथा हमारी दृष्टि के सामने (सदा) प्रवाहमान रहे।
स्नान करते समय की जाने वाली जल स्तुति का वर्णन रूद्र पुराण में है। इस स्तुति में स्नान करने वाला व्यक्ति, देश की प्रमुख नदियों को निम्नानुसार स्मरण करता हैः
ओम गंगे च यमुनैचैव, गोदावरी सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन सन्निधिं कुरू ।।
इस श्लोकके माध्यम से स्नान करने वाला व्यक्ति जल की स्तुति करता है और कहता है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी, सरस्वती इत्यादि नदियों का जल मुझे पवित्र करे।
भारत की प्राचीन वैदिक परम्परा में पानी को साफ रखने के निर्देश है जिसमें कहा गया है कि नदियों के जल में गंदगी या कूड़ा-कर्कट डालना या उसमें थूकना या मल-मूत्र त्याग करना वर्जित है। इन सभी कृत्यों को पाप करने के तुल्य माना है।
भारतवर्ष में गंगा नदी को सबसे अधिक पवित्र नदी माना जाता है। इसके पानी के बारे में कहा जाता है कि उसमें कीटाणु नष्ट करने की अद्भुत क्षमता है। यह क्षमता भारत की अन्य किसी भी नदी के पानी में नहीं है। भारत के कोने-कोने से गंगा स्नान करने आने वाले हिन्दु श्रद्धालु बरसों से अपने साथ गंगा जल ले जाते रहे हैं। इस जल का उपयोग हर धार्मिक कृत्य या पूजा-पाठ में किया जाता है।
कुम्भ और सिंहस्थ, जल के महापर्व हैं। वे भारतीय संस्कृति में सदियों से रचे बसे हैं और हिन्दुओं की अटूट आस्था के केन्द्र हैं। समुद्र मंथन की पौराणिक कथा, जिसमें अमृत पाने के लिये देवों और दानवों के बीच हुई लड़ाई में जिन चार स्थानों पर अमृत की बून्दें गिरी थीं, कालान्तर में, उन स्थानों पर कुंभ मेले आयोजित हुये। जिन चार स्थानों पर अमृत की बून्दें गिरी थीं, वे स्थान हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं। इन चारों स्थानों पर 12 साल के अंतराल से कुंभ मेले आयोजित होते हैं और उज्जैन का कुंभ मेला, सिंहस्थ कहलाता है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में इन कुम्भ मेलों के आयोजन की तिथियाँ राशियों एवं ग्रहों की स्थिति के अनुसार तय की जाती हैं जो निम्न अनुसार हैः
अ.  हरिद्वार में कुम्भ राशि पर बृहस्पति का एवं मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
ब.   प्रयाग में वृष राशि पर बृहस्पति का योग होने पर पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
स.  उज्जैन में सिंह राशि पर बृहस्पति का एवं मेष राशि पर सूर्य का योग होने पर पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। इसे सिंहस्थ मेला कहते हैं।
स्कन्ध पुराण में कहा गया है कि-
बैसाख मास के शुक्ल पक्ष में जब बृहस्पति सिंह राशि में, सूर्य मेष राशि में एवं चन्द्रमा तुला राशि में हों तब यदि स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि, व्यतिपात् योग और सोमवार का दिन एक साथ उपस्थित हों तो उस तिथि को उज्जैन नगरी में क्षिप्रा नदी में स्नान करने वाला जातक मोक्ष को प्राप्त होता है।
द.   नासिक में वृश्चिक राशि पर बृहस्पति का योग होने पर पूर्ण कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।
कुम्भ मेलों के धार्मिक महत्व को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि एक हजार अश्वमेघ यज्ञ करने और एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जितना पुण्य मिलता है, उतना पुण्य महाकुम्भ स्नान से एक बार में ही प्राप्त होता है। हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं में प्रयाग एवं उज्जैन के महाकुम्भ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। हरिद्वार और नासिक में एक ही समय पर तथा प्रयाग और उज्जैन में एक ही समय पर 6 साल के अंतराल से अर्धकुम्भ मेले आयोजित होते है। यह हुई नदी, नालों और तालाबों के पानी की वैदिक कहानी, आईये, आगे फिर कभी करेंगे धरती के कोख के पानी की बात।
                                      लेखक
श्री के. जी. व्यास (भू-जलविद)

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