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Thursday, July 4, 2019

Prarthana me daya ka mahatav - by brahmachari girish


प्रार्थना मेंदयाका महत्व

Brahmachari Girish
आधुनिक वैश्विक समाज में चहुं और ईर्ष्या, वैर-विरोध और हिंसा व्याप्त है। सब मानवता को भूलते जा रहे है या ऐेसा प्रतीत होता है कि समाज के लोगों ने मानवता को जाना ही नहीं है। भारतीय वैदिक परंपरा में दया का महत्वपूर्ण स्थान है। दया ही मानव को मानवता की ओर ले जाती है अर्थात् सामुहिकता की ओर ले जाती है। मुझे ज्ञात है महर्षि कहा करते थे कि ‘‘जब व्यक्ति स्वयं के भले की सोचता है तो ईश्वर उसका साथ नहीं देता किंतु जब हम सामुहिक हित या समाज के कल्याण की ओर प्रयास करते हैं तो ईश्वर हमें शक्ति प्रदान करते हैं और हमें ऐसी अनुभूति होती है कि एक परमशक्ति आपका उत्साहवर्धन करते हुए आपका मार्गदर्शन कर रही है।इतिहास में ऐसी कई घटनाएं है जिनके मूल में दया का बीज था जो समाज के उत्थान के रूप में फलित हुआ। सिद्धार्थ का बुद्धु हो जाना भी ऐसी ही एक घटना है। जी हाँ, गौतम बुद्ध का वास्तविक नाम ‘‘सिद्धार्थथा और उनके पिता चाहते थे कि वह आगे चलकर महान राजा बनें। किंतु सांसारिक जीवन पर आगे बढ़ते हुए सिद्धार्थ ने पाया कि संसार में चहुं ओर दुःख व्याप्त है। उन्होंने कुछ ऐसी घटनाओं को घटित होते देखा जिससे वे इन सांसारिक दुःखों के कारणों को खाजने की ओर प्रवृत्त हुए और 29 वर्ष की आयु में एक दिन, रात्रि के समय अचानक इन दुःखों के कारणों और सत्य को खोजने के लिए समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़कर निकल पड़े और बौधिसत्व की प्राप्ति के पश्चात् ‘‘गौतम बुद्धकहलाए। यदि सिद्धार्थ के हृदय में समाज के दुःखों को देख दया उत्पन्न होती तो वह बुद्ध होते। तब स्पष्ट है कि सिद्धार्थ  कोगौतम बुद्धकिसने बनाया। वह थी उनके हृदय में समाज के लिएदयातो, बुद्ध होने के लिए हृदय में दया का भाव होना आवश्यक है। दिन-प्रतिदिन हमारे चारों ओर विभिन्न प्रकार की घटनाएं घटित होती हैं और उन्हें देखने और समझने की सभी की अपनी दृष्टि होती है। प्रायः हम यह देखते हैं कि मार्ग में यदि किसी व्यक्ति के साथ कुछ दुर्घटना घटित हो जाये तो उसे देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिक्रिया भिन्न होती है। उदाहणार्थ यदि कोई व्यक्ति व्यायाम के उद्देश्य से घर से निकलता है मार्ग के बीचों-बीच पड़े पत्थर से उसे ठोकर लगती है और वह गिर जाता है। जब यह घटना घटित होती है तो तीन प्रकार के व्यक्ति हमारे सामने आते हैं। एक प्रकार के तो केवल  घटना स्थल के मूक दर्शक बने रहते हैं। द्वितीय प्रकार के व्यक्ति घटना की गंभीरता को देखकर तुरंत हर संभव सहायता करते हैं। अंततः तृतीय या उत्तम प्रकार के व्यक्ति घटना की गंभीरता को देखकर तुरंत हर संभव सहायता करते है और मार्ग से उस पत्थर को भी हटा देते हैं जिससे भविष्य में और किसी भी व्यक्ति के साथ उक्त घटना का पुर्नघटन हो। यह तीनों प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक हैं। यदि हम घटित घटना को देखकर प्रथम प्रकार के व्यक्ति के व्यवहार का आकलन करें तो हम पायेंगे कि प्रथम व्यक्ति के मन में दया भाव शून्य है, वह घटना को घटित होते देख मात्र दर्शक ही बना रहता है। द्वितीय व्यक्ति दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को देखता है तो उसके मन में दया भाव उत्पन्न होता है तथा वह सहायता करता है और तृतीय, उत्तम पुरूष उक्त घटनाक्रम में सहायता करने के पश्चात् घटना के कारण को जानने का प्रयास करता है और उसका निवारण करता है। यहां दया, उत्थान का कारण बन जाती है। प्रत्येक प्रगतिशील समाज में दयाभाव का होना इसीलिए आवश्यक है जो वर्तमान समय में कम ही दृष्टिगत होता है। दया से हमारे हृदय में करूणा उत्पन्न होती है जो हमें यह प्रेरणा देती है कि हम चेतन अवस्था में करूणामय होकर सांसारिक परिस्थितियों का सामना करते हुए उनके निवारण हेतु प्रयत्न करें। समय-समय पर दया भाव लिये महापुरुषों ने भारत भूमि को अपनी चरणरज से पवित्र किया है। अभीष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के निवारण के लिये हम आदिकाल से ही विभिन्न देवी-देवताओं को पूजते आये हैं। भारतभूमि में ऐसी मान्यता है कि जब-जब समाज में दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती हैं तब-तब स्वयं भगवान स्वयं साधु-संतों के रूप् में धरती पर अवतरित होते हैं या ऐसे मानवों का चुनाव करते है जिनके हृदय में समाज के उत्थान की इच्छा होती है। और वह ईश्वर के आशीर्वाद से अपनी चेतना को जागृत कर समाज की उत्तरोत्तर प्रगति के लिये मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसी क्रम में जन्म हुआ ‘‘भावतीत-ध्यान योग शैलीका। जब नाना प्रकार की समस्याओं और दुःखों से घिरे वेश्विक जनसमुदाय को परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने देखा तो उनका हृदय दया भाव भर गया और उन्होंने मानव के समस्त दुःखों के निवारण हेतु ‘‘भावातीत ध्यान योग शैलीके रूप् एक ऐसा मार्ग सुझाया जिससे मानव की चेतना जागृत हो जाती है और समस्त नकारात्मकता, सकारात्मकता में परिवर्तित होने लगती है। सत्य ही है, एक चैतन्य मस्तिष्क और दया भाव से संतृप्त हृदय की प्रार्थनाएं भी स्वतः ही फलीभूत होने लगती हैं क्योंकि परमपिता परमेश्वर भी दया रहित हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार्य नहीं करते हैं।

ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश.

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