पाँच ‘प’ की प्राप्ति और बिछोह
पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभाव और प्रताप, ये पांचों छोटे ‘प’ बड़े प-पाप के जनक हैं। इस पाँचों को देखकर एक सामान्य व्यक्ति उनकी ओर आकर्षित होता है। दूसरे चरण में इनको प्राप्त करने
की इच्छा करता है। तीसरा चरण इनको पाने का प्रयत्न है। बस यहीं से छोटा ‘प’ ‘पा’ की ओर अग्रसर होने लगता है। इन पाँचों की प्राप्ति के यत्न में बड़ा ‘पा’ ‘पाप’ समाहित होता है। पाँचों की प्राप्ति के लिये व्यक्ति एड़ी चोटी का पसीना बहा देता है। येन-केन-प्रकारेण उसे इन्हें प्राप्त करना होता है। साम, दाम, दण्ड, भेद सभी यत्नों का प्रयोग होता है। पूर्व में प्रमाणित और स्वयं के शोध का इनमें प्रयोग किया जाता है। प्राप्ति के क्रम में कुछ पाप भी करना पड़े तो इससे परहेज नहीं होता। धीरे-धीरे इनकी प्राप्ति होने लगती है। जैसे ही प्राप्ति होने लगती है, गर्व की अनुभूति होती है, फिर कुछ दम्भ का पुट लगता है जो पककर अष्ट प्रकृतियों (भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) की अंतिम प्रकृति, अहंकार में परिवर्तित हो जाता है।
Brahmachari Girish |
जब तक व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति होता है, उसमें चतुराई, गर्व, दम्भ, अहंकार, लाभ, हानि, लोभ, मोह, क्रोध, भय, अपराध आदि विकार प्रवेश नहीं करते, किन्तु जैसे ही पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभाव और प्रताप की प्राप्ति हुई बस उसी दिन से यह सब विकार और मानसिक रोगों का घर, मन, मस्तिष्क और उसके आधार चेतना में बस जाता है। वहाँ मानसिक रोग हुआ वहाँ शारीरिक रोगों के रूप में यह धीरे-धीरे प्रकट होने लगता है। पाँचों ‘प’ में निरन्तर वृद्धि होती है, साथ-साथ मानसिक और शारीरिक रोगों में भी वृद्धि होती है। एक उच्चतम स्तर तक जाकर विकास रूक जाता है, कुछ काल तक थमा रहता है और फिर आकाश की ओर जाने वाला बाण वापस पृथ्वी की ओर आने लगता है। यह उच्चतम स्थान अहंकार है, बस वहीं से वापसी होती है और पाँचों ‘प’ पुनः अपने मौलिक प्रारम्भ स्थान-अष्ट प्रकृतियों के प्रथम स्थान पृथ्वी पर आ गिरते हैं। तब मनुष्य निराशा, कुण्ठा, तनाव, थकान, रोगों की चरम अवस्था को प्राप्त होता है, वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, पन्चेन्द्रियाँ क्षीण होने लगती हैं। छठी इन्द्रिय जो पांचों व्यक्त इन्द्रियों की सारथी रही थी वो समय के साथ लुप्त होने लगती है। पांचों ‘प’ पृथ्वी में समा जाते हैं। व्यक्ति पुनः सामान्य व्यक्ति हो जाता है। प्राप्ति और इसे पकड़े रखने की लालसा जाती रहती है। मन, बुद्धि, चेतना पुनः अनुभव, भोग और पश्चाताप की अग्नि में तपकर शुद्ध होने लगते हैं। जिन प्राप्तियों को प्राप्ति मानता था, अब उसे परम पिता परमेश्वर की इच्छा, आशीर्वाद और देन बताने लगता है। विलम्ब से सही, किन्तु सतमार्ग पर आने लगता है। धीरे-धीरे समाज में और अपने ही घर में व्यक्ति की महत्ता समाप्त होने लगती हैं। अपने, पराये सब छूट जाते हैं। केवल एकाकी जीवन ही शेष रहता है। तब जाकर बिल्कुल अंत में प्रभु के चरणों में समर्पण करता है। तब समझ आता है और स्वीकारता है कि हे प्रभु बस तुम्हीं तो एक हमारे जीवन का सहारा हो, अब शेष जीवन की डोर तुम्हारे ही हाथों है, हमारा कल्याण करो प्रभु, हमारी रक्षा करो भगवान और जब यह सब प्रार्थना भी प्रभावी होते नहीं दिखती, तो व्यक्ति अंतिम प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, हे जगत के पालनहार, हे परमपिता परमेश्वर, हे जन्म दाता और हे जगत के स्वामी बस, अब बहुत हो गया, हमें मुक्ति दे दो, इस भवसागर से पार करो, इस नश्वर जगत से छुटकारा दिलाओ प्रभु, अब और कुछ नहीं चाहिये, हमारी अंतिम प्रार्थना स्वीकार करो। त्राहिमाम, त्राहिमाम।
अत्यन्त दयालु, भक्तवत्सल, परमपिता सब पिछली बातों को विस्मृत कर देते हैं। अब सामने केवल भक्त ही दिखता है, चाहे जैसा हो, उसने पुकारा है, अब हमें ही तो अपना अंतिम सहारा कह रहा है, हम नहीं तो और कौन इसे भवसागर पार करायेगा? प्रभु भक्त की सुन लेते हैं और भक्त को मुक्ति प्रदान करके अपने धाम में-अपने श्री चरणों में अपने भक्त को परमपद की प्राप्ति करा देते हैं।
पाँचों ‘प’ और कई अन्य ‘प’ जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक नहीं होते, ये तो बस बाधक ही होते हैं। यहीं जीवन में एक सच्चे गुरू की आवश्यकता होती है जो मनुष्य को समय-समय पर उचित मार्गदर्शन देते रहें। मनुष्य अपने लक्ष्य से भटके नए सतमार्ग पर चलता हुआ, सद्गति को प्राप्त हो। आइये श्रीगुरूपूर्णिमा के पूर्व की बेला में हम अपनी वैदिक गुरू परम्परा, गुरूदेव स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज और इस युग में इस पावन पवित्र गुरूपरम्परा के वाहक प्रतिनिधि परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी का स्मरण करें, उनके श्री चरणों में साष्टांग कोटि-कोटि नमन करें, उनके द्वारा दर्शित साधना, ज्ञान, सत्य और धर्म की चतुष्चक्र वाहिनी पर सवार होकर आत्मा के विस्तृत राजमार्ग से होते हुए अपने जीवन को धन्य करें।
जय गुरू देव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
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