सुचेष्टा से आनंद
मानसी चेष्टा तन को खाने लगती हैं। इन कुचेष्टाओं को सुचेष्टाओं में उदात्तीकृत करना ही मानव का अभीष्ट होना चाहिये।
Brahmchari Girish |
मानव की सीमित बुद्धि तथा सोई हुई चेतना (अन्तर्दृष्टि) के कारण यह समझना अत्यधिक कठिन हो जाता है कि अनियंत्रित इच्छाएं ही समस्त दुःखों का कारण है। सुचेष्टाओं का पालन, संयम और नियम ही मनुष्य जीवन का मूल श्रृंगार है। सुख या फिर आनंद इनके कारण नहीं मिलता। ये जीवन को चलाते हुए प्रतीत होते हैं परंतु जीवन ऊर्जा का स्रोत कहीं और है, अपनी आपूरित इच्छाओं को उनमें प्रक्षेपित करने की भूल से बचें अन्यथा वे आपके लिए मात्र साधन होकर रह जायेंगे और याद रखिए साधनों का अस्तित्व या महत्ता तभी तक है, जब तक उनका उपयोग कर पा रहे हैं। पदार्थ स्वयं में निरपेक्ष है। इसका उपयोग ही इसकी सार्थकता सिद्ध करता है। इसलिए वस्तुओं के प्रति अतिमोह हमारे जीवन को अर्थहीनता की ओर ले जाता है। साधनों का सम्यक प्रयोग ही जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है। सुबह शाम पदार्थों को इकट्ठा करने की दौड़ में हम थक जाएंगे। यह कभी खत्म नहीं होगी, जिस दौड़ की दिशा का ज्ञान न हो वह निरर्थक साबित हुआ करती है। मन को रोकना नहीं है। मन के कारणों को नियंत्रित करना है। जब जीवन में सुख आता है हम सुखी हो जाते हैं और जब दुःख आता है तो हम दुःखी हो जाते हैं। ऐसा बहुत बार हो जाता है कि हम खूब परिश्रम करते हैं, सभी लोग मानते हैं कि हमें सफलता जरूर मिल जाएगी। अग्रिम बधाइयां भी मिलने लगती हैं। फिर अचानक हमारी अपेक्षाएं धरी रह जाती हैं। कुछ लोग दोहरे परिश्रम में पुनः जुट जाते हैं, लेकिन यह आसान नहीं होता। कुछ लोग लंबे समय के लिए उलझ जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में हमें तटस्थ भाव रखना चाहिए। आजकल अपने हित में दूसरों का इस्तेमाल कितना और कैसे करते हैं इसे बड़ी योग्यता माना जाता है। दूसरों का उपयोग करने के बाद हम उनका दुरुपयोग करने लगते हैं। कई बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें नहीं मिला वह दूसरों को मिल जाता है। दूसरे यदि अपरिचित हों तब तो हमें इतनी दिक्कत नहीं होती। समस्या तब होती है जब हमें न मिले और हमारे परिचित को वह प्राप्त हो जाए। तुलना और बेचैनी शुरू हो जाती है और यदि परिपक्वता न दिखाई तो अनजाने में ही हम आलोचना पर उतर आते हैं। आपको नहीं मिला तो आपने आलोचना का सहारा ले लिया। हमारे शास्त्रों में यह विचार अनेक ढंग से आया है, लेकिन है बड़ा सुंदर और गहरा। विचार यह है कि जीवन ही जीवन को खाता है। हम जिन संसाधनों का उपयोग कर रहे होते हैं, उनके हम तक आते-आते कई जीवन नष्ट हुए हैं। भोजन कहीं न कहीं प्रकृति के किसी हिस्से को मारकर ही आया है। और तो और यह भी लिखा गया है, ‘‘निज मन ही निज तन को खाए” तो हमारा मन ही हमारे तन को खा जाता है। हमारा आचरण संतुलित होना चाहिए सुचेष्टाओं का पालन करते हुए भयमुक्त होकर कर्म करते रहना चाहिए। अपनी अनियंत्रित इच्छाओं को नियंत्रित करने हेतु परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी हमें भावातीत ध्यान जैसा एक प्रयास रहित साधन दे गये हैं जिसके नियमित अभ्यास से हम हमारी चेष्टाओं को सुचेष्टाओं में परिवर्तित कर जीवन को आनंदित बना सकते हैं।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
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