आत्मबुद्धि व इष्टदेव बुद्धि
वैदिक और वैज्ञानिक दोनों ही सिद्धांतों पर महर्षि जी प्रणीत
भावातीत ध्यान खरा बैठता है। इससे आत्मबुद्धि तथा इष्ट बुद्धि का सहज समन्वय हो जाता
है। श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं अपने भक्त के हृदय में वास
करता हूँ और उसे भी इसका बोध रहता है। जीव व
इन्द्रियों के बीच जो ज्ञान है वह ‘मन’
कहलाता है। इसी प्रकार आत्मा व जीव के बीच का जो ज्ञान है वह ‘बुद्धि’ कहलाती है। अतः
‘मन-संशयात्मक’ ज्ञान है व निश्चयात्मक ज्ञान-बुद्धि’ है। इसको सरलता से कुछ इस प्रकार
समझा जा सकता है कि जब हम कुछ निर्णय इन्द्रियों की आसक्ति से लेते हैं तो ऐसे निर्णयों
में सदैव संशय बना रहता है वहीं सदैव बुद्धि से लिये गये निर्णयों में संशय की स्थिति
न होकर निश्चय की स्थिति होती है, क्योंकि इस निर्णय से इन्द्रियों की आसक्ति नहीं
होती। इस प्रकार यदि मन व बुद्धि को आत्मा में केन्द्रित किया जाता है तो हमारे प्रत्येक
निर्णय में परम पिता परमेश्वर का आशीर्वाद रहता है और हमारे कार्य सफल होते हैं। यह
तो शाब्दिक अर्थ हुआ आत्मबुद्धि का। इष्टदेव बुद्धि पर हमारी बुद्धि के प्रकाशक भगवान
हैं, जो हमें बुद्धि देते हैं। जब हम अपने ईश्वर, गुरु, देवता की उपासना करते हैं तो
उनसे हमें संस्कारवान बुद्धि मिलती है। अब प्रश्न उठता है जब ईश्वर एक है तो उसके द्वारा
दी गई बुद्धि भी समान तो फिर यह नकारात्मकता क्यों? हमारी बुद्धि को हमारे संस्कार
प्रभावित करते हैं और संस्कार तीन प्रकार के होते हैं (१) तामसी संस्कार, (२) राजसी
संस्कार, तथा (३) सात्विक संस्कार। अतः तामसी बुद्धि है तो अधर्म को मानेगी, अच्छे
कार्यों को बुरा मानेगी और बुरे कार्यों को अच्छा। अब राजसी संस्कार व सात्विक संस्कार
यहां महाभारत से उदाहरण लेना उचित होगा। पांडव व कौरव एक ही वंश के थे, दोनों के ही
संस्कार राजसी थे किंतु कौरवों की बुद्धि में तामसी व राजसी संस्कारों का प्रभाव था।
वह किसी भी संस्कारवान व्यक्ति के साथ नहीं रहते थे। अतः उन्होंने कभी भी पांडवों के
साथ उचित व्यवहार नहीं किया। वहीं पांडवों की बुद्धि के साथ उनके राजसी संस्कार व धर्मराज
युधिष्ठिर के सात्विक संस्कार उन्हें भगवान् कृष्ण की शरण में ले गये। राजसी संस्कार
होते हुए भी उन्होंने भगवान कृष्ण की सलाह को सर्वोपरि रखा और सांसारिक भोगों से मुक्त
रहते हुए स्वर्ग को प्राप्त किया।
Brahmachari Girish Ji |
अतः हमारे जीवन में आत्मबुद्धि व इष्टदेव बुद्धि का समन्वय
हमें विकास की ओर ले जाता है। अब प्रश्न उठता है कि इस भौतिकवादी जीवन में कैसे हम
हमारे मन व बुद्धि को आत्मा की शरण में ले जावें? साथ ही इष्टदेव बुद्धि को सात्विक
संस्कारों की शरण में इन दोनों ही परिस्थितियों में साधारण मानव का पहुँचना बड़ा कठिन
है। यह परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी जानते थे। अतः उन्होंने मानव जीवन के कल्याणार्थ
‘‘भावातीत-ध्यान-योग” को प्रतिपादित कर हमारी इस कठिन यात्रा को सुगम बना दिया।
जो श्रद्धायुक्त मानव परमेश्वर में अपने मन व बुद्धि स्थापित
कर परम आत्मज्ञान का सेवन करते हैं उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त
होता है और ऐसे लोग भगवान को अति प्रिय होते हैं। श्रीमद्भागवत में भगवान को प्रसन्न
करने के जो 30 लक्षण बताये गये हैं उनमें आत्मबुद्धि व इष्टबुद्धि भी सम्मिलित है।
जो हमें परमपिता परमेश्वर की शरण में ले जाती है और हमारे चिंतन, मनन में आधार हमारे
जीवन को आनन्दित कर देते हैं।
महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रदत्त-कार्यक्रम शाश्वत् वेद,
विज्ञान शुद्ध, ज्ञानपूर्ण, ज्ञानप्रकृति के नियमों चेतना विज्ञान, जो जीवन का आधार
है और अत्याधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है, जो विश्वभर में दिये गये अनेक
वैज्ञानिक शोध एवं अनुसंधानों से प्रमाणित हैं। वैदिक और वैज्ञानिक दोनों सिद्धांतों
और उनके प्रयोगों को एक साथ लेकर और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शांति व आनंद का
समावेश करके हम अपने लक्ष्य की पूर्ति अतिशीघ्र कर सकेंगे।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व
शांति
की
वैश्विक
राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश
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