‘‘तितिक्षा”
क्षमाः एक प्रार्थना”
भगवान को
प्रसन्न करने के लिए श्रीमद भागवत में तीस उपाय बताए गए हैं। आज का विषय तितिक्षा अर्थात
क्षमा है जो मानव के महामानव बनने की प्राथमिकताओं में से एक है। क्षमा रहित हृदय सदैव
उत्तेजित एवं कटु होते हैं एवं इससे उत्पन्न घृणा हमारे हृदय को संकुचित करके विवेक
एवं विचार को पंगु बना देती है और हमारी बुद्धि को भी ढंक देती है। वहीं दूसरी ओर क्षमा
की अनुपस्थिति में वह स्थान भी घृणा एवं शत्रुता को आरक्षित कर देते हैं, सदैव बदले
कि आग में सुलगते रहते हैं। मानसिक एवं शारीरिक सेहत का भी नुकसान करते हुए हम घृणा
को पृश्रय देते हुए सदैव तनाव व चिन्ता से भरे रहते हैं और इस परिस्थिति में हम अपने
मन के साथ-साथ शरीर पर भी नियन्त्रण नहीं कर पाते। जिस व्यक्ति को अपने भीतर अमृत का
बोध हो गया, जिसने अपने प्राणों के गहरे में यह प्रतीत कर ली कि वह मृत्यु के आने पर
मरेगा नहीं, केवल देह-मुक्त होगा, केवल वही व्यक्ति अभय को उपलब्ध होता है और वही व्यक्ति
अपने पूरे प्राणों से क्षमा कर पाता है, जैसा कि भगवान बुद्ध ने किया।
बुद्ध एक
गांव में ठहरे हैं। उस गांव के एक शूद्र ने बुद्ध को निमंत्रण दिया कि मेरे घर भोजन
करें। वह पहला निमंत्रण देने वाला था, सुबह-सुबह जल्दी आ गया था-पांच बजे, ताकि गांव
का कोई धनपति, गांव का सम्राट निमंत्रण न दे दे। बहुत बार आया था, लेकिन हर बार कोई
निमंत्रण दे चुका था। वह निमंत्रण दे ही रहा था कि तभी गांव के एक बड़े धनपति ने आकर
बुद्ध से कहा कि आज मेरे घर निमंत्रण स्वीकार करें। बुद्ध ने कहा, निमंत्रण आ गया।
उस अमीर ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा, इस आदमी का निमंत्रण! इसके पास खिलाने को भी
कुछ होगा?
उस आदमी को
भरोसा भी न था कि बुद्ध कभी उसके घर भोजन करने आएंगे। उसके पास कुछ भी न था खिलाने
को। वस्तुतः रूखी रोटियां थीं। सब्जी के नाम पर बुद्ध के लिए उसने कुकुरमुत्ते बनाए
थे, जो जहरीले थे, सत, और कड़वे थे। मुंह में रखना मुष्किल था, लेकिन उसके पास एक ही
सब्जी थी। तो बुद्ध न यह सोचकर कि अगर मै कहूं कि यह सब्जी नहीं है। वे उस जहरीली सब्जी
को खा गए। उसे मुहं में रखना कठिन था और बड़े आनंद से खा गए, और उससे कहते रहे कि बहुत
आनंदित हुआ हैं। जैसे ही बुद्ध वहां से निकले, उस आदमी ने सब्जी चखी, तो वह हैरान हो
गया। वह भागा हुआ आया और उसने कहा कि आप क्या कहते हैं? वह तो जहर है? वह छाती पीटकर
रोने लगा, लेकिन बुद्ध ने कहा, तु जरा भी चिंता मत कर, क्योंकि जहर मेरा अब कुछ भी
न बिगाड़ सकेगा, क्योंकि मैं उसे जानता हूं, जो अमृत है। तू जरा भी चिंता मत कर।
लेकिन फिर
भी उस आदमी की चिंता तो हम समझ सकते हैं। बुद्ध ने उसे कहा कि तू धन्यभागी है। तूझे
पता नहीं। तू खुश हो। तू सौभाग्यवान क्योंकि कभी हजारों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति
पैदा होता है। दो ही व्यक्तियों को उसका सौभाग्य मिलता है, पहला भोजन कराने का अवसर
उसकी मां को मिलता है और अंतिम भोजन कराने का अवसर तुझे मिला है। तू सौभाग्यशाली है,
तू आनंदित हो। फिर सैकड़ों-हजारों वर्षों में कभी कोई बुद्ध पैदा होगा और ऐसा अवसर फिर
किसी को मिलेगा। उस आदमी को किसी तरह समझा-बुझाकर लौटा दिया। बुद्ध के शिष्य कहने लगे,
आप यह क्या बातें कर रहे हैं। यह आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, भुलकर ऐसी बात मत
कहना, अन्यथा उस आदमी को नाहक लोग परेशान करेंगे। तुम जाओ, गांव में डुंडी पीटकर खबर
करो कि यह आदमी सौभाग्यशाली है, क्योंकि इसने बुद्ध को अंतिम भोजन का दान दिया है।
मरने के वक्त लोग उनसे कहते थे कि आप एक दफा तो रुक जाते! कह देते कि कड़वा है, तो हम
पर वज्रपात न गिरता! लेकिन बुद्ध कहते थे कि यह वज्रपात रुकने वाला नहीं था। किस बहाने
गिरेगा? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और जहां तक मेरा संबंध है, मुझ पर कोई वज्रपात नहीं
गिरा है, क्योंकि मैंने उसे जान लिया है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।
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