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Friday, June 28, 2019

Akshy Urja Srot by Brahmachari Girish Ji


अक्षय ऊर्जा स्रोत

Brahmachari Girish Ji
वर्तमान समय का मानवजीवन अनेकानेक कार्यो को करने की होड़ में अव्यस्थित तनावयुक्त हो गया है, इससे हमारी जीवनशैली से शांति आनंद बहुत दूर हो गया है और सभी यांत्रिक जीवन जीने के अभ्यस्थ हो गये है। मानव जीवन की ऊर्जा उसके जीवन की शांति आनंद में समाहित होती है। और यही ऊर्जा मानव को प्रत्येक परिस्थिति में तटस्थ रहने का संबल प्रदान करती है। आधुनिक जीवनशैली में व्यायामशाला (जिम) एक आवश्यक गतिविधि बन गया है, किंन्तु प्रतिदिन लगभग 40-50 मिनिट व्यायामशाला में व्यायाम करने वाले लोग भी शांति आनंद के आभास से अर्थात् जीवन की ऊर्जा से स्वयं को अनभिज्ञ मानते है। वहीं ‘‘भावातीत ध्यानका साधक प्रतिदिन प्रातः संध्या के समय 15-20 मिनिट ध्यान कर जीवन के इस कभी समाप्त होने वाली ऊर्जा के अक्षय स्रोत ‘‘भावातीत ध्यानसे शांति आनंद प्राप्तकर अभिभूत हो रहा है। ध्यान का महत्व मुख्य रूप से शरीर के आंतरिक मानसिक संतुलन को संतुलित करना है और साथ ही ध्यान से परमेश्वर की प्राप्ति भी होती है। ध्यान से आपकी कर्मशीलता में हानि नहीं होती वरन् प्रतिदिन ‘‘भावातीत ध्यानकरने से आपकी कार्यशैली में गुणोत्तर वृद्धि होती है। जिससे अपनी ऊर्जा का आप उचित उपयोग कर पाते है और आप स्वयं को अधिक ऊर्जावान आनंदित अनुभव करते हैं। क्योंकि ‘‘भावातीत ध्यानका अभ्यास करने से आपकी अव्यस्थित ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, मनःस्थिति एकाग्रचित हो जाती है और जब चित्त एकाग्र हो जाता है जो मात्र मछली की आंख दिखाई देती है, मछली नहीं। अर्थात् इस चराचर जगत में भौतिकवादी विलासिता की अनेक माया रूपी इच्छाएं आपको अपने मार्ग से भटकाने का प्रयास करती हैं तथा चित्त की अशांति के फलस्वरूप् हम भी उसके मोहपाष में बंधकर अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की पूर्ति करने में स्वयं को आर्थिक रूप से असमर्थ पाते है। हम निराशवादी होते हुए स्वयं पर विश्वास नहीं करते, स्वयं को एकाकी अनुभव करने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर ‘‘भावातीत ध्यानहमेंवसुधैव कुटुम्बकमका सदस्य बताता है जिससे हम अपनी परिस्थितियों को समझने तथा उनके निराकरण के लिये उचित मार्ग की खोज कर समस्याओं को दूरकर स्वयं में अद्भूत धनात्मकता का अनुभव करते हैं। शिव संहिता के पंचम पटल के 190-191 श्लोक में परमेश्वर में ध्यानस्थ साधक के विषय में कहा गया है कि -
चितवृत्ति लीना कुलाख्ये परमेश्वर।
तदा समाधिसाम्येन योगी निश्चलतां ब्रजेत्।।
निरंतरकृते ध्याने जगद्विस्मरणं भवेत्।
तदा विचित्रसामर्थ्य योगिनो भवति ध्रुवम्।।
अर्थात् ईश्वर में अपनी मनोवृत्ति का विलयन कर लेने वाला ध्यानस्थ साधक अचल समाधि में निमग्न हो जाया करता है। उसमें जागतिक विषयों की विस्मृति तथा विचित्र प्रकार की क्षमता की उत्पत्ति हो जाती है। यह कथन बिल्कुल ही सत्य है। शिव संहिता में उद्धृत यह श्लोक इस तथ्य को पूर्ण सत्य बताता है कि एक चित्त होने अर्थात् भावातीत ध्यान की स्थिति में धीरे-धीरे प्रवेश करते हुए साधक सांसारिक विषयों को विस्मृत करते हुए समाधि में प्रवेश करता और उसका एक अक्षय ऊर्जा स्त्रोत से तादाम्य स्थापित होते जाता है। शिव संहिता के ही अगले श्लोक में साधक को अमृत का सतत पान करने वाला बताया है-
तदस्माद्रलितपीयूषं पिवेद्योगी निरंन्तरम्।
मृत्योर्मुत्यु विधायषु कुलं जित्वा सरोरुहे।।
अर्थात् सहस्त्र दल कमल से टपकते हुए अमृत का सतत पान करने वाला साधक अपने कुल सहित मृत्यु पर भी विजय-लाभ पा लेता है। ऐसे असीम आनंद और ऊर्जा का अक्षय स्त्रोतभावातीत ध्यानहै।

ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश 

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