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Friday, June 28, 2019

Akshya Shrot by Brahmachari Girish Ji


अक्षय स्रोत 
यह स्वयं सिद्ध सिद्धान्त है कि जिसके पास जो वस्तु है, वही वह दूसरे को दे सकता हे। जितनी मात्रा में वह वस्तु उसके पास है, उतनी ही मात्रा में वह दूसरे को दे सकता है। यदि हम पूस की रात में चांदनी में बैठकर आशा करें कि हमें चन्द्रमा गर्मी पहुंचा देगा तो हमें निराशा ही हाथ लगेगी। उसी प्रकार यदि हम जेठ की दोपहरी में सूर्य से ठण्डक की आशा करें तो भी हमें निराशा होगी। चन्द्रमा में गर्मी और सूर्य में ठण्डक है ही नही तो वे बेचारे हमें कहां से देंगे। अब हम मात्रा की बात लें। यदि किसी के पास एक करोड़ रूपये हैं, तो वह हमें प्रसन्न होकर दस हजार, बीस हजार और अधिक से अधिक एक करोड़ रूपये दे सकता है। यदि इसके बाद भी हमें दस रूपया की आवश्यकता हो तो हमें नहीं दे सकेगा। इस स्वयं सिद्ध सिद्धान्त के संदर्भ में हम मानव मन का विश्लेषण करें। उपनिषद् ने घोषणा की है कि स्वल्प में सुख नहीं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह प्रत्येक अच्छी वस्तु की चरम सीमा को पाना चाहता है, फिर वह एक वस्तु से ही संतुष्ट होने वाला नहीं है। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो मात्र विद्या से संतुष्ट हो, अथवा जो मात्र धन चाहता हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा जो सुन्दर स्वास्थ्य चाहता हो। कीर्ति, अधिकार, विद्वता, सौन्दर्य सभी इन वस्तुओं को चाहते हैं, वह भी प्रचुर मात्रा में। संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं, एक तो वे जिनमें वह वस्तु जिसकी हमें चाह है, है ही नहीं। केवल उसका आभास मात्र है यथा मृग जल, रेत में जल होकर मात्र उसका प्रतीक है। दूसरी वे वस्तुएं जिनमें हमारी वांछित वस्तुएं हैं, पर असीमित मात्रा में नहीं, जैसे फूल में सीमित मात्रा में ही पराग संभव है। मनुष्य का कार्य पारस पत्थर से नहीं चल सकता क्योंकि वह लोहे से सोना बनाकर उसे धनवान बना सकता है, वह उसे विद्या नहीं दे सकता। मनुष्य को तो चिन्तामणि चाहिए जिससे वह अपनी सभी इच्छाएं पूरी कर सके। चिन्तामणि, वह अक्षय स्त्रोत है जहां सभी वांछित वस्तुओं का अटूट भण्डार है, प्रत्येक के भीतर स्थित है। आवश्यकता है उसे पहचानने की और उसकी सभी क्षमताओं को कार्य क्षेत्र में उतारने की। वह अटूट भण्डार चेतना की स्वाभाविक स्थिति में, जहां असीम शान्ति है, सुरक्षित है। भावातीत ध्यान वह चेक है जिसके द्वारा हम इस चेतना बैंक से मनचाही वस्तु प्राप्त कर सकते हैं।
आध्यात्म और विज्ञान
आम धारणा है कि वैज्ञानिक उन्नति से मानव की धर्म पर आस्था डिग गयी है। यह विचार भ्रांति मूलक है क्योंकि धर्म और विज्ञान दोनों का उद्देष्य एक ही है- शाश्वत सत्य की खोज। उनके मार्ग और कार्य क्षेत्र अवश्य भिन्न हैं। वास्तव में आध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे एक दूसरे के पूरक हैं। विज्ञान भौतिक धरातल और पदार्थों पर प्रयोग और विष्लेषण कर सत्य की खोज करता है, जबकि आध्यात्म मानव का मानसिक विकास कर उसकी भावनाओं को शुद्ध, परिष्कृत कर उसके आवरण को उच्च स्तर पर ले जाता है। धर्म की कई परिभाषायें की गयी हैं परंतु सबसे उपयुक्त परिभाषा है- वह जीवन पद्धति जो मानव की सहज चेतना की पूर्णता की ओर जाने वाली गति के अनुकूल हो। इसका स्वाभाविक परिणाम है उन व्यवधानों को हटाना जो चेतना के स्वाभाविक मार्ग पर उसकी गति को अवरुद्ध करते हैं। आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक आइंस्टीन का कथन है कि ‘‘आध्यात्म बिना विज्ञान अंधा है और विज्ञान विहीन आध्यात्म लंगड़ा है।तात्पर्य यह है कि आध्यात्म विज्ञान का मार्गदर्शन करता है कि उसे अपनी शक्ति का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए। इस मार्गदर्शन के बिना विज्ञान विध्वंसकारी बन सकता है। विज्ञान बिना आध्यात्म के अपने उच्च उद्देश्यों को मूर्तरूप् नहीं दे सकता। विज्ञान की उन्नति से अध्यात्म का सच्चा रूप निखरेगा और बिनोवा जी की भविष्य वाणी ब्रह्म विद्या विज्ञान द्वारा प्रतिष्ठित होगी, यह सत्य सिद्ध होने वाली है। महर्षि महेश योगी जी वेद और विज्ञान का समन्वय करते हैं।
ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय
एवं महानिदेशक, महर्षि विश्व शांति की वैश्विक राजधानी
भारत का ब्रह्मस्थान, करौंदी, जिला कटनी (पूर्व में जबलपुर), मध्य प्रदेश 

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