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Wednesday, March 7, 2018

Consciousness is the field of all the possibilities - the eternal sea of knowledge, strength and joy

चेतना समस्त सम्भावनाओं का क्षेत्र-ज्ञान, शक्ति और आनन्द का अनन्त सागर है

Brahmachari Dr. Girish Chandra Varma

श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त मानवता को देशकाल बन्धन से परे किये गये उपदेश में योगस्थः कुरूकर्माणि, योगः कर्मसुकौशलम्, सहजम् कर्मकौन्तेय, निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन आदि अभिव्यक्तियों से गूढ़ रहस्य उद्घाटित कर दिये हैं। ध्यान देने की बात यह है कि भगवान के उपदेश में बौद्धिक स्तर से कर्म करने की बात नहीं है, योग में-समाधि में-चेतना में-आत्मा में स्थित होकर कर्म करने का मार्गदर्शन है। आज सभी श्रेष्ठजन कर्म करने की चर्चा करते हैं किन्तु यह कर्म केवल सतही स्तर पर रह जाता है, चेतना के स्तर पर नहीं, और यही कारण है कि लगातार कर्म करते हुए भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आते। पूर्व काल में जब कोई ऋषि, मुनि, महर्षि आशीर्वाद देते थे तो वह त्वरित प्रभावशाली होता था। आयुष्मानभव, सफल हो, कल्याण हो, सौभाग्यवतीभव आदि आशीर्वाद के वाक्य या क्रोधवश दिये श्राप का प्रभाव निश्चिततः होता ही था। यज्ञ और अनुष्ठानों का फल प्राप्त हो जाता था। अब क्या हो गया? घर-घर में पूजा, पाठ, अनुष्ठान, यज्ञ होते हैं किन्तु फल की प्राप्ति नहीं होती, क्यों? क्योंकि यह सब आज के भक्तजन या कर्मकाण्डी केवल बौद्धिक स्तर पर, वाणी के वैखरी स्तर पर करते हैं। आवश्यकता वाणी के परा स्तर से अर्थात् परा चेतना से-भावातीत चेतना-तुरीय चेतना-आत्म चेतना के स्तर पर पहुंचकर कर्म करने की है। योग में स्थित होकर कर्म करो अर्थात् वाणी के परा स्तर से कार्य करो अर्थात् भावातीत चेतना-तुरीय चेतना के स्तर से कार्य करो। यह सम्भव है क्या? हाँ, चेतना की जागृत, स्वप्न, सुशुप्ति की तीन अवस्थाओं का नित्य अनुभव करते हुए चेतना को सहज रूप में लाकर-चौथी अवस्था-भावातीत की चेतना-परा की चेतना-शिवम् शान्तम् अद्वैतम् चतुर्थम् मन्यन्ते आत्मा विज्ञेयः में स्थित होकर कर्म करो, तो फिर वहां समस्त देवताओं की उपस्थिति, जागृति होने से सारे विचार, सारे व्यवहार, सारे कर्म सहज होते हैं, सात्विक होते हैं, सकारात्मक होते हैं, सफल होते हैं, प्रकृति के नियमों के अनुरूप होते हैं, प्रकृति पोषित होते हैं, परिणामतः सत्यमेवजयते होता है। भावातीत चेतना-सहज चेतना के स्तर से कार्य होने पर कार्य सहज हो जाते हैं, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं होता, व्यक्ति अस्वस्थ नहीं होता, वाणी भी पवित्र हो जाती है, प्रिय और सत्य वचन ही बोले जाते हैं, सब कुछ दैवीय सत्ता से पोषित होता है, जीवन के हर क्षेत्र में बस एक ही उद्घोष रह जाता है-विजयन्तेतराम्।


चेतना का क्षेत्र असीमित है, चेतना आत्मपरक है, समस्त सम्भावनाओं का क्षेत्र है, प्रकृति के नियमों का केन्द्र है, विश्व के समस्त देवी-देवताओं का घर है, समस्त गुणों का भण्डार है, ज्ञान का अनन्त भण्डार है, क्रियाशक्ति का श्रोत है, रचनात्मकता का क्षेत्र है, आत्मा का क्रियात्मक रूप है, व्यक्त शरीर का अव्यक्त आधार है। जब भावातीत चेतना में किसी विचार या संकल्प का सूत्र लगाते हैं, स्पन्दित करते हैं तो वह अविलम्ब फलीभूत होता है। यही योग में स्थित होकर कर्म करने का रहस्य है, विधान है जो अत्यन्त सरलता से महर्षि जी ने मानवता को उपलब्ध करा दिया है। अब यदि हम इसे जीवन का अभिन्न अंग बना लें तो दुःख संघर्ष आदि दूर होंगे, जीवन सुखी, समृद्ध, गौरवशाली, सफल और सभी प्रकार से आनन्दमय होगा" ये उद्गार ब्रह्मचारी गिरीश जी ने भोपाल में स्थित गुरुदेव ब्रह्मानन्द सरस्वती आश्रम में श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किये।

विजय रत्न खरे, निदेशक - संचार एवं जनसम्पर्क
महर्षि शिक्षा संस्थान

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