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Sunday, November 12, 2017

भावातीत ध्यान के द्वारा आनंद चेतना करती है कायाकल्प - Brahmachari Girish Ji



     भावातीत ध्यान के द्वारा आनंद चेतना करती है कायाकल्प
क्या हम अपना जीवन ज्ञान यज्ञ और प्रेमयज्ञ की दोनों विधियों से नहीं जी सकते? ब्रह्म से दुःखों की निवृत्ति नहीं होती, ब्रह्मानुभूति से अवश्य हो जाती है। इसी प्रकार कर्म तो श्वास-प्रतिश्वास में है किंतु गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं ‘सहजं कर्मकौन्तेय’। फिर रामचरितमानस में वही बात प्रकारान्तर से सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में गोस्वामी तुलसीदास कह जाते हैंः सहज पापप्रिय मानस-देह।
ज्ञानयुग के प्रणेता परमपूज्य महर्षि महेश योगी इन्हीं जीवन सत्यों को अपने आर्ष-ग्रंथ ‘द साइंस ऑफ बीइंग एंड आर्ट ऑफ लिविंग’ में सम्बद्ध कर देते हैं। इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय का शीर्षक है ‘जीवन सत्ता की कला’ उनकी मान्यता है कि हमारे तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम पर क्रियाशीलता और निष्क्रियता दोनों का प्रभाव महत्वपूर्ण है। अति सक्रियता हमें थका देती है जबकि उसका अभाव हमें मलिन कर सकता है। इनका संतुलन हमें चाक-चौबन्द-चैतन्य रखता है जो कि मस्तिष्क के स्तर पर जीवनसत्ता की सफलता के लिये आवश्यक है। जब शरीर थक जाता है तो तंत्रिकातंत्र भी मंद हो जाता है, शिथिलता आ जाती है, मस्तिष्क ऊँघने लगता है, अनुभव क्षमता खो देता है। ऐसी स्थिति में विचार के महीन स्तरों का अनुभव और जीवनसत्ता के स्तर की प्राप्ति संभव नहीं होती।
यथार्थतः जीवनसत्ता की स्थिति यानी ‘स्टेट ऑफ बीइंग’ मस्तिष्क की अत्यंत सामान्य और स्वयंपूर्ण स्थिति है। ध्यानस्थ होने पर जब मस्तिष्क, विचार के सूक्ष्मतम स्तरों के परे चला जाता है, तो वह स्वयं में स्थित रह जाता है।  इसे ही आत्मचेतना या पावन जीवनसत्ता की स्थिति कहते हैं। अतः इसकी प्राप्ति के लिये मस्तिष्क को सभी विषयों और अनुभवों से रिक्त कर देना चाहिए। अनुभव करने की वह क्षमता रहनी चाहिए जैसी कि गहरी नींद में बनी रहती है। इस प्रकार मनःस्थिति ऐसी निलंबित रहती है कि वह न तो सक्रिय है और न निष्क्रिय। यही होगी जीवनसत्ता की स्थिति-स्टेट ऑफ बीइंग।
तंत्रिकातंत्र की सक्रियता में हमारी समझ इन्द्रिय-बोध से बनती है, इससे थकान होती है। थकान की घटत-बढ़त के अनुपात में हमारी समझ प्रभावित होती है क्योंकि उसका सीधा प्रभाव अनुभव क्षमता पर पड़ता है। सीधी बात है कि तंत्रिकातंत्र की दैहिक स्थिति मनः स्थिति को प्रभावित कर देती है। इस स्थिति में जीवनसत्ता की प्राप्ति नहीं हो सकती। अधिक सक्रियता के अतिरिक्त खान-पान का भी तंत्रिकातंत्र पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए रहन-सहन और खानपान की नियमितता आवश्यक है।
जब मस्तिष्क, भावातीत जीवनसत्ता की स्थिति में आ जाता है तब वह प्राकृतिक नियमों के साथ तालमेल बैठाकर असीम ऊर्जा-स्रोत से समस्वरित हो जाता है। उससे पटरी बैठा लेता है। कर्मपथ सरल हो जाता है और तंत्रिका तंत्र पर दबाव नहीं पड़ता। इस प्रकार प्राप्त ऊर्जा का अपव्यय कदापि नहीं करना चाहिये। तंत्रिका तंत्र को सुव्यवस्थित रखने के लिये मस्तिष्क का संतुलन आवश्यक है, भावातीत ध्यान से प्राप्त आनंदचेतना से यह सब संभव है।
हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं और पांच कर्मेन्द्रियां। देखने, सुनने, गंध लेने, स्वाद लेने तथा स्पर्श करने की इन्द्रियां ही ज्ञानेन्द्रियां हैं जबकि हाथ, पैर, जिव्हा और मल-मूत्र निष्कासन की इन्द्रियां कर्मेन्द्रियां हैं। प्रथम पांच से मस्तिष्क को बोध होता है और अंतिम पांच से वह कर्म करता है बाहरी दुनिया का बोध कराता है। ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां दोनों सभी परिस्थितियों में जीवनसत्ता चैतन्य बनी रहती हैं। इसका सीधा सरल अर्थ है कि अपने-अपने मूल्यों में ये दोनों स्वयं पूर्ण बनी रहें अर्थात् अपनी पूरी क्षमता से बराबर सक्रिय रहें। दोनों में समन्वय समायोजन भी बना रहना चाहिए। इसका परिणाम होगा विषय का पूरा ज्ञान और कर्म की पूरी उपलब्धि। हम विषयों को तो पूरी तरह समझते हैं किंतु हमारी इन्द्रियां उनकी दास नहीं होतीं।
उत्तम स्वादिष्ट मधु का स्वाद चखने के बाद फिर अन्य कोई मिष्ठान्न जिव्हा पर प्रभाव नहीं डाल सकता। इसी प्रकार जब इन्द्रियां जीवनसत्ता की आनंदमयी चेतना से परिप्लावित हो जाती हैं तो छोटी-मोटी प्रसन्नता की आवक-जावक का कोई स्थायी प्रभाव नहीं होता। इस प्रकार इन्द्रिय स्तर पर जीवनसत्ता का अर्थ है कि इन्द्रियां विषय-विविधा के सुखों का अनुभव करते हुए भी आनंद चेतना में पूर्ण संतुष्टि प्राप्त कर लेती हैं किंतु परमानंद के असीम स्रोतों के सतत् मूल्यों से जुड़ी रहने के कारण विषयों के बंधन में नहीं आतीं।
इस प्रकार की संतुष्टि के पश्चात् फिर इन्द्रियां किसी अन्य सुख की खोज में नहीं अटकतीं। व्यक्ति की देह और उसके मस्तिष्क में अद्भुत संतुलन के परिणामस्वरूप आंतरिक और बाह्य में भी समरसता हो जाती है। फिर देखने की दृष्टि बदल जाती है। बोध-स्तर पर सब कुछ पावन और नैतिक होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति सुखकारी है। यह सही इच्छा है। किन्तु इन्द्रिय स्तर पर आनंद की चेतना की स्थापना से ऐसी संतोषानुभूति होती है जो अनुभव-जन्य प्रभावों से बंधन मुक्त रहती है। किन्तु यक्ष प्रश्न है कि ‘‘इंन्द्रिय-स्तर पर जीवनसत्ता का समावेश कैसे करें? इसके लिये प्रथमतः यह जानना आवश्यक है कि इन्द्रियों की पहुंच कहां-कहां तक है। ’’
हम आंखें खोल कर देखते हैं और मस्तिष्क इनसे जुड़कर अपने सम्मुख विषय से सम्पर्क स्थापित कर लेता है। हमारा ज्ञान और बोध भले ही इसी आधार पर बनता हो किंतु हमें यह भी जानना चाहिए कि दृष्टि-खुली आंखों तक ही सीमित नहीं है। आंखें बन्द करके भी बहुत कुछ देखना संभव है। यह मानसिक बोध भी दृष्टि का ही परिणाम है। स्पष्ट है कि हम स्थूल से सूक्ष्म तक और बाह्य से आंतरिक तक का बोध करने में सक्षम हैं। मन में हम जैसा सोचते हैं आंखें मूंद कर भी वैसा ही देख सकते हैं। खुली आंखें तो दृश्य के स्थूल स्तर का प्रतिनिधित्व करती हैं। उसी प्रकार जब हम किसी शब्द को सुनते हैं तो मस्तिष्क द्वारा श्रवण के स्थूल स्तर से जुड़ने के कारण स्थूल ध्वनि का बोध होता है, किंतु जब अंतरमन बोलता है और मन-मानस सुनता है तो मस्तिष्क श्रवण के सूक्ष्म स्तरों से जुड़ चुका होता है। भावातीत ध्यान की प्रक्रिया के समय हमारा मस्तिष्क विचारों के अति सूक्ष्म स्तर का बोध कराता है और इसका कारण है मस्तिष्क का श्रवण-बोध के अति सूक्ष्म स्तरों से जुड़ना । इस प्रकार हम समझ जाते हैं कि भावातीत ध्यान के समय हम इन्द्रिय-बोध के सूक्ष्मतम स्तर पर होते हैं, जबकि दैनंदिन गतिविधियों के समय हम सामान्यतः इन्द्रिय-बोध के स्थूल स्तर का ही उपयोग करते हैं।
भावातीत ध्यान से जब मस्तिष्क के समस्त सीमान्त सक्रिय हो जाते हैं तब जीवनसत्ता इन्द्रिय-स्तर पर आ जाती है। इससे बोधगम्य क्षमता में असीम वृद्धि हो जाती है। सामान्यतः हम विषयगत विश्व के एक छोटे से भाग को ही जान पाते हैं अर्थात् अनुभवजन्य संपूर्ण संभावना साकार नहीं हो पाती। इस स्तर पर हमारा इन्द्रिय-बोध छोटे-मोटे विषयगत सुखों के दायरे में सिमट कर रह जाता है।
सृजन के स्थूल स्तर पर इन्द्रियों का विषयगत सम्पर्क अधिक सुख प्रदान नहीं कर सकता। लेकिन जैसे-जैसे सृष्टि के सूक्ष्म स्तरों का इन्द्रिय-बोध बढ़ता जाता है तैसे-तैसे आनंद का अनुभव होने लगता है। भावातीत ध्यान के समय सूक्ष्म स्तर पर अनुभवों में सम्पूर्णता आ जाती है। रमणीयता में वृद्धि के साथ-साथ इन्द्रियां सूक्ष्म स्तरों का अनुभव करने में सक्षम हो जाती हैं और मस्तिष्क को अधिकाधिक सुख प्राप्त होता है। वह सापेक्ष क्षेत्र में आनंद के सर्वोच्च स्तर का अनुभव करने लगता है। जब मस्तिष्क सुखों के परे जाकर इन्द्रिय-बोध के भी परे चला जाता है तब परमानंद की अनुभूति होने लगती है।
यही वह क्षण है जब जीवनसत्ता इन्द्रिय स्तर पर स्थापित हो जाती है। वह इन्द्रिय-बोध में परिलक्षित होने लगती है। भावातीत ध्यान की कला द्वारा जीवनसत्ता को इन्द्रिय-स्तर पर लाना है। यह वह कला है जिसके बल पर हम विषय को उसके सूक्ष्म और स्थूल स्तरों पर अनुभव करने के लिए इन्द्रियों को सक्षम बना सकते हैं। मस्तिष्क की भांति इन्द्रियां भी अथाह सागर ही हैं। भावातीत ध्यान से हमारा मस्तिष्क इन्द्रियों की अटल गहराइयों को सक्रिय कर देता है। इन्द्रियों के सम्पूर्ण सीमान्त जीवन्त हो उठते हैं। परिणामतः इन्द्रियां अपने स्रोत तक पहुंच जाती हैं और वहां से उन्हें भावातीत-परमसत्ता का रसास्वादन होने लगता है। यह इन्द्रियों का इन्द्रियेत्तर भोजन है। यही तो है उस आनंद-चेतना का समावेश जो देह-इतर कायाकल्प कर देती है।
 
ब्रह्मचारी गिरीश

कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

डा. घनश्याम सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.

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