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Monday, November 20, 2017

योग जीवनसत्ता के मूल में पहुंचने का माध्यम है
तपस्विभ्योऽधिको योगी
ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी
तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
उक्त श्लोक का अर्थ हैः तपस्वियों, ज्ञानियों और सकाम कर्मियों से भी श्रेष्ठ है योगी। अतः हे अर्जुन तुम योगी हो। सहस्राब्दियों पूर्व योगिराज श्रीकृष्ण और तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के बीच जो संवाद हुआ था वह अत्यंत शिष्ट, अनुशासित और प्रेरणाप्रद होने के कारण न केवल वर्तमान असहिष्णु समाज के लिये रोल मॉडल का कार्य करेगा बल्कि हमारे दूरदर्शन परिवार के लिये तो सर्वदा अनुकरणीय सिद्ध होगा। यह संवाद इतना सामयिक सिद्ध और प्रासंगिक है कि सहस्राब्दियों के बाद भी गीता के द्वितीय अध्याय के पचासवें श्लोक को भारतीय प्रशासन सेवा (आइ ए एस) ने अपने आर्ष वाक्य के रूप में अपनाया। यह श्लोकांश हैः
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम’
अर्थातः समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है। हमारे देश में योग की परम्परा बहुत पुरानी है। संभवतः वगीकृत धर्मों से भी अति प्राचीन है भारत में योग का इतिहास। ईसाइयत 2100 वर्ष पुरानी  है। इस्लाम का उद्भव 1400 वर्ष पहले हुआ। किंतु वैदिक विचार और संस्कृति के स्त्रोत तो ऋग्वेद से जुड़े हैं जिसे विश्व का प्राचीनतम आर्ष चिन्तन माना जाता है। योग भी वैदिक काल की ही देन है। यद्यपि योग की वेदान्तिक भूमिका है किन्तु उसे किसी धर्म विशेष से जोड़ना उसके सार्वभौमिक और सार्वदेशिक महत्व को उसी तरह कम करना है जैसे कि गीता को मात्र हिन्दू धर्म की पुस्तक समझना जबकि वह तो विश्वदृष्टि का अध्यात्म है।
सामान्यतः महर्षि पंतजलि को योग का  सूत्रधार माना जाता है। पंतजलि युग को लेकर विद्वानों शोधार्थियों ने खूब बौद्धिक व्यायाम किया है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने तो उन्हें प्रकारान्तर से द्वापर युगीन ही बना दिया। उन्होंने जिन महाग्रंथों के पठन-पाठन की अनुशंसा की है ‘उनमें पंतजलि मुनिकृत सूत्र पर व्यासमुनिकृत भाष्य’ भी है। इसका निहितार्थ यह है कि महर्षि व्यास ने पंतजलि सूत्र की व्याख्या की। अर्थात् पंतजलि महर्षि व्यास के अग्रज हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यान ने अपनी पुस्तक ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में पंतजलि का समय 300 वर्ष ईसा पूर्व से अधिक का माना है। उनका तर्क है कि वादरायण का यह कथन ‘एतेन योगः प्रत्युक्तः’ इस बात का प्रमाण है कि पंतजलिकृत योगसूत्र वादरायण के पहले का है जबकि स्वयं वादरायण का समय 300 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है।
महर्षि पंतजलि की वंदना इस प्रकार की जाती है।
‘‘योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शारीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ॥’’
तब क्या यह मान लें कि योगशास्त्र (योगसूत्र) पदशास्त्र, व्याकरण, महाभाष्य तथा वैद्यक चरक के रचनाकार एक ही पंतजलि थे? महामुनि पंतजलि के जन्मस्थान और उनकी जन्मतिथि के विषय में भले ही मतभेद हों किंतु यह सर्वमान्य है कि योगदर्शन के वैज्ञानिक प्रणेता वे ही थे। वेदों में योग का उल्लेख है। गीता तो सांख्य योग और कर्मयोग दोनों का प्रतिपादन करती है किंतु महर्षि पंतजलि अंगबोध से आत्मबोध के प्रतिपादक हैं। अति साधारणीकरण करें तो पंतजलि योग किसी आध्यात्मिक सिद्धांत को लेकर नहीं चलता बल्कि यह सीधा सरल संदेश देता है कि स्वस्थ्य शरीर और संयमी जीवन द्वारा किस प्रकार मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि पंतजलि सम्यक स्वास्थ्य की बात करते है। इसके तीन आधार हैं। स्वस्थ्य शरीर, संतुलित मन और निर्मल आत्मा इनका ‘योगदर्शन’ सम्यक स्वास्थ्य विज्ञान है जिसमें शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक स्वास्थ्य का क्रियात्मक निरूपण प्रस्तुत किया गया है। यह केवल सैद्धांतिक न होकर व्यवहारिक है। स्वस्थ शरीर तथा सबल आत्मा दोनों ही इसके प्रतिपाद्य विषय हैं। शरीर स्वस्थ रहने पर ही चित्त निर्मल होगा तथा चित्त की निर्मलता से ही आत्मा के यथार्थ स्वरूप की निश्चित प्राप्ति होगी। ‘योगः चित्तवृत्ति निरोधः’ कैवल्य, समाधि या आत्मलाभ तभी संभव है जब चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाय। समाधि या चित्तवृति निरोध की कुछ अवस्थायें बताई हैं। संप्रज्ञात तथा असंप्रज्ञात। पहली स्थिति में चित्त की कुछ वृत्तियां शेष रह जाती है किंतु असंप्रज्ञात समाधि की अवस्था में चित्तवृतियों का संपूर्ण निरोध हो जाता है, यह सहज समाधि है, आत्मा की स्वरुप स्थिति है। महर्षि महेश योगी जी ने इसे ही बीइंग या जीवनसत्ता कहा है और उनका भावातीत ध्यान इसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्थिति तक पहुंचा देता है। उस पर हम इसी लेख में संक्षिप्त चर्चा करेंगे की महर्षि पंतजलि ने योग साधना की जिस प्रणाली का सूत्रपात किया उसके आठ अंग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इसे  ही अष्टांग योग कहते हैं। नैतिक साधना अर्थात् यम नियम का पालन किये बिना समाधि लाभ असंभव है। यथार्थतः इसे मन बुद्धि, चित्त और अहंकार के परिप्रेक्ष्य में चित्तवृतियों के अवरोध के रुप में समझें। यम बाहर का नियंत्रण है। संयम आंतरिक है। धारणा ध्यान और समाधि क्रमशः देश काल और मन के नियंत्रण और भावातीत होने की प्रक्रिया है। यह स्थूल की प्रक्रिया है यह स्थूल, सूक्ष्म, करण और तुरीय ध्यान के रुप में क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का नियंत्रण है। इसे ही प्रकारांतर से महर्षि महेश योगी ने भावातीत ध्यान पद्धति कहा है। वर्तमान में हम जिस योग को व्यवहारिक रुप में इलेक्ट्रानिक चैनलों या योगा क्लासेस में देखते है वह सामान्य प्राणायाम और आसनों पर केंद्रित है।  महर्षि दयानंद सरस्वती (1824-1883), परमहंस योगानंद (1893-1952), आचार्य रजनीश (1931-1990) और महर्षि महेश योगी (1917-2008), आधुनिक युग के महान योगगुरु थे। ब्रह्मकुमारी राजयोग सिखाती हैं। योगगुरु रामदेव तो योग पतंजलि ही हैं, जिन्होंने महर्षि जी की तरह योग प्रचार के लिये प्रचार-माध्यमों का व्यापक और विस्तृत उपयोग किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भगीरथ प्रयत्नों का ही परिणाम है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया है। पश्चिमी दुनिया में योग की मान्यता व्यायाम के रुप में है, प्राणायाम और आसनों के साथ लोग ध्यान भी करते हैं, ताकि चंचल चित्त को कुछ स्थिर करने का अभ्यास किया जा सके, अब योग का  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसायीकरण हो गया है। मैं सपत्नीक अमेरिका में था। मुझे लासवैगास में योग प्रसंग में दो अनुभव हुये। लिफ्ट में मुझे एक पंजाबी सज्जन मिले जो अमेरिका में योगाचार्य का काम करते है और सौ डालर प्रतिघंटा की शुल्क पर योगा क्लास चलाते है। मैं उनका नाम भूल गया। उन्होनें मुझे योग विषयक एक दिलचस्प किस्सा सुनाया जो इस प्रकार है। ‘मेरा योगा क्लास लॉसवेगास मे सवार्धिक लोकप्रिय है। मैं थोड़ा महंगा योगगुरु हूँ। मैं एक घंटे के योगा प्रेक्टिस के सौ डालर लेता हूँ। यह नगर शुरू में मजदूरों की बस्ती थी, जो खूब पीते और जुआ खेलते थे। वे तो अपना वेतन (वेजेज) हार जाते थे। अतः नगर का नाम लॉस्टवेजैज से लॉसवेगास हो गया। वर्तमान में भी यहां जबरदस्त जुआ होता है। जुआरी हार जाने के बाद बहुत अशांत अनुभव करते है। फिर व मेरी योगा क्लास की शरण आते है और मानसिक शांति अनुभव करते है।’ दूसरा अनुभव मुझे इसी नगर में एक महिला से मिलकर हुआ जिसकी अखबारों में छपी लंबी नाक वाली फोटो के बल पर मैंने उसे अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला पहचाना। ‘यस आइ हैव प्रामिनेन्ट नोज’ उन्होनें तपाक से हाथ मिलाते हुये मुझसे कहा। पंजाबी योगगुरु की चर्चा करने पर उन्होनें कहा-जी हां मैं उन्हें जानती हूं मैं नियमित योगा करती हूँ। लेकिन मैंने उनसे न सीखकर अन्य भारतीय स्रोतों से सीखा है। जब मैं अंतरिक्ष में जाने के लिये प्रशिक्षण ले रही थी तब योगगुरु रामदेव का अधिक प्रचार नहीं था। दो पीढ़ी पहले हमारे पंजाबी पुरखे जब बद्री केदारनाथ आदि चार धाम की यात्रा करते थे तो वे अपना अंतिम संस्कार अग्रिम कर देते थे क्योंकि उस समय वह यात्रा इतनी कठिन थी कि कौन जाने लौटे कि नहीं लौटे। मेरे मन में था कि अंतरिक्ष की यात्रा तो इससे भी बहुत कठिन है। फिर योगसूत्र मेरे हाथ लग गया। प्रशिक्षण के समय नित्य 45 मिनट योगा करने लगी। जो मानसिक परिवर्तन हुआ वह बताना कठिन है क्योंकि वह अनुभव का विषय है। फिर तो मैने अंतरिक्ष में भी योग किया...।
अब ज्ञानयुग के महान प्रणेता और सर्वथा नवीन विश्व-व्यवस्था के प्रतिपादक महर्षि महेश योगी की भावातीत ध्यान पद्धति पर अति संक्षिप्त विचार करें जो साधक को विशुद्ध चेतना के माध्यम से आत्म स्वरूप का बोध कराती है जिसे पंतजलि मुनि का योगदर्शन ‘तदाद्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम’ निरूपित करता है। महर्षि ने इस समस्त पद्धति का नितान्त सरल और सुग्राह वर्णन अपनी युग प्रवर्तक पुस्तक ‘द साइंस आफॅ बीइंग एंड आर्ट ऑफ लिविंग’ में किया है जो उन्होनें सन् 1968 में लेक एरोहैड केलिफोर्निया अमेरिका में लिखी थी। इसे समग्रता में हृदयंगम करने के लिये तो महर्षि जी लिखित गीताभाष्य पढ़ना भी जरुरी है क्योंकि महर्षि जी ने भावातीत ध्यान के सिद्धांत को मूलतः श्रीमद्भगवदगीता से ही ग्रहण किया है। यद्यपि महर्षि जी ने योग के परम्परागत जटिल विषय को अत्यंत सरल ढंग से प्रस्तुत किया है किन्तु इसे सरल बनाने हेतु उन्हें 364 पृष्ठ की एक ऐसी पुस्तक की रचना करना पड़ी जो विज्ञान, धर्म और अध्यात्म की त्रिवेणी है, महर्षि महेश योगी इसी के तट पर रम रहे प्रयाग पुरुष हैं। फिर भी यदि महर्षि प्रणीत भावातीत ध्यान योग को एक ही वाक्य में समझने का प्रयास करें तो वह कुछ इस प्रकार होगा, ‘एक बागवान अपने बगीचे को तभी भली भांति समझ सकता है जब वह अपने पौधों की अदृष्य जड़ों को समझता हो क्योंकि पौधों का जीवन इन्हीं जड़ों पर निर्भर करता है, इसी प्रकार प्रत्येक जीवात्म को अदृष्य जीवनसत्ता का ज्ञान होना चाहिये क्योंकि वही हमारा मूल हैं।’ आधुनिक युग के वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने जीवनसत्ता जैसे भाववाचक विषयों को भी परख-पड़ताल के दायरे में ला दिया है। इसके लिये विचार और भाव की महीन सतहों के परे उसके मूल में भीतर उतरने की आवश्यकता है। चैतन्य मस्तिष्क तो मात्र सीमित क्षेत्र में काम करता है किंतु भावातीत ध्यान पद्धति हमें भाव और विचार के परे ले जाकर अचेतन के क्षितिजों का असीमित विस्तार कर देती है। शेष तो नियमित अभ्यास पर निर्भर है। महर्षि महेश योगी के प्रेरणा स्रोत आदिशंकराचार्य और उनके गुरुवर स्वामी ज्योतिष्पीठोद्धारक परम तपस्वी वेद वेदान्त शिरोमणि ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज थे।





ब्रह्मचारी गिरीश https://www.facebook.com/BrahmachariGirishJi
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

घनश्याम सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.



1 comment:

  1. Jai guru dev Jai Maharishi
    If TM & Yoga are adopted honestly, The positive change is guaranteed in the life of every person in evolutionary direction -Dr Satbir Singh Educationist & Botanist

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