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Wednesday, September 30, 2020

Bhavatit Dhyan ka Anand by Pujya Brahmachari Girish Ji

भावातीत का आनंद - By Pujya Brahmachari Girish Ji

भावातीत ध्यान के द्वारा मन के आनन्द की ओर जाने के स्वभाव का अनुसरण करते हुए मनुष्य न मात्र आत्मानन्द का अनुभव करता है वरन्  मन के द्वारा अत्यन्त व्यापकता का अनुभव होने से व्यक्ति के व्यपहार में व्यापकता आ जाती है, प्रकृति के नियमों के स्त्रोत से एकरूप होने से सहज रूप से प्रकृति के नियम व्यक्ति की चेतना में जाग्रत रहते हैं तथा उसके कार्य सहज स्वाभाविक रूप से सदैव प्रकृति के नियमानुसार होते हैं। माण्डूक्योपनिषद् कहता है- ‘तद्विज्ञाने न परिपश्यन्ति धीरा आनंद रूपमर्भृतम् यद्विभाति’ अर्थात ज्ञानी लोग विज्ञान से अपने अंतर में स्थित उस आनंदरूपी ब्रह्म् का दर्शन कर लेते हैं एवं ज्ञानियों में भी परम ज्ञानी हो जाते हैं। सुख भौतिक है तो आनंद आध्यत्मिक। भौतिक उपादानों का ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुभव प्राय: सभी को एक-सा ही होता है। फूल की गंध, वस्तुओं का सौंदर्य, फलों के स्वाद से जो अनुभूति हमें होती है, लगभग स्वस्थ इन्द्रियों वाले सभी व्यक्तियों को एक समान ही होता है, किंतु आनंद इससे नितांत भिन्न है। इसका रसास्वदन प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग रूपों में होता है। आनंद प्रत्येक साधक की साधना की चरम उपलब्धि है, चाहे उसकी अनुभूति के रूप भिन्न-भिन्न हों। इसीलिए विद्वानों ने कहा है- ‘आध्यात्मिकता ही दूसरी प्रसन्नता है। जो प्रफुल्लता से जितना दूर है, वह ईश्वर से भी उतना ही दूर है। वह न आत्मा को जानता है, न परमात्मा की सत्ता को। सदैव झल्लाने, खीजने, आवेशग्रस्त होने वालों को मनीषियों ने नास्तिक बताया है। आत्मा का सहज रूप परम सत्ता के समान आनंदमय है। मूल अथवा शाश्वत ‘आनंद’ की प्रकृति भिन्न होती है। उसमें नीरसता अथवा एकरसता जैसी शिकायत नहीं होती। उस परम आनंद में मन मद की भांति डूबा रहता है और उससे वह बाहर आना नहीं चाहता, किंतु सांसारिक क्रिया-कलापों के निमित्त उसे हठपूर्वक बाहर जाना पड़ता है। यह अध्यात्म तत्वज्ञान वाला प्रसंग है और अंत: करण की उत्कृष्टता से संबंध रखता है। अक्षय आनंद की प्राप्ति का क्या उपाय है?  आनंद की खोज में व्याकुल और उसकी उपलब्धि के लिए आतुर मनुष्य बहुत कुछ करने पर भी उसे प्राप्त न कर सके तो उसे विडंबना ही कहा जाएगा। आनंद की खोज करने वालों को उसकी उपलब्धि संतोष के अतिरिक्त और किसी वस्तु या परिस्थिति में हो ही नहीं सकती। आनंद को देख न पाना मनुष्य की अपनी समझने की भूल है। भाव-संवेदनाओं की सौन्दर्य दृष्टि न होने से ही उस आनंद से वंचित रहना पड़ता है, जो अपने आस-पास ही वायुमंडल के समान सर्वत्र घिरा पड़ा है। आनंद भीतर से उमंगता है। वह भाव-संवेदना और शालीनता की परिणति है। बाहर की वस्तुओं में उसे खोजने की अपेक्षा अपनी दर्शन-दृष्टि का परिमार्जन होना चाहिए। एक गुरु ने एक बार अपने शिष्यों से कहा था ‘संतोष’ ईश्वर-प्रदत्त संपदा है और तृष्णा अज्ञान के द्वारा थोपी गई निर्धनता’। आनंद के लिए किन्हीं वस्तुओं या परिस्थितियों को प्राप्त करना आवश्यक नहीं और न उसके लिए किन्हीं व्यक्तियों के अनुग्रह की आवश्यकता है। वह अपनी भीतरी उपज है। आनंद की उपलब्धि मात्र एक ही स्थान से होती है, वह है आत्मभाव। परिणाम में संतोष और कार्य में उत्कृष्टता का समावेश करके उसे कभी भी, कहीं भी और कितने ही बड़े परिमाण में पाया जा सकता है। आत्मीयता ही प्रसन्नता, प्रफुल्लता और पुलकन है। इस अपनेपन को यदि संकीर्णता के सीमा-बंधनों में न बांधा जाए तो आत्मीयता का प्रकाश विशाल क्षेत्र को आच्छादित करेगा और सर्वत्र अनुकूलता, सुंदरता बिखरी पड़ी दिखेगी। परिवार को, शरीर को ही अपना न मानकर यदि प्राणी समुदाय व प्रकृति विस्तार पर उसे बिखेरा जाए तो दृष्टिकोण में परिवर्तन ही बहिरंग क्षेत्र में आनंद से भरा हुआ प्रतीत होगा। आत्मभाव की उदात्त मान्यता अपनाकर सभी नए सिरे से प्रारंभ करें और परिवर्तित हुए संसार का सुखमय चित्र आनंद-विभोर होकर देखें। प्रात:, संध्या भावातीत ध्यान योग का नियमित अभ्यास आपको आनंद से भर देगा क्योंकि जीवन आनंद है।

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