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Monday, December 4, 2017

अंतरमुखी मन पहुंचता है जीवनसत्ता के स्तर तक
महर्षि महेश योगी जी को ज्ञानयुग का प्रणेता वैज्ञानिक संत कहा जाता है। इसका मुख्य कारण उनके विज्ञान तथा आध्यात्म के समन्वय में है। दोनों के विचार और विवेचना के क्षेत्र पृथक होते हुये भी दोनों में समरूपता हो सकती है जिसे अंग्रेजी में कन्वर्जेन्स कहते हैं। विज्ञान, लौकिक जगत का ज्ञान है जो पदार्थ और ऊर्जा को लेकर चलता है। अध्यात्म, अलौकिक जगत का ज्ञान है जो आत्मा और चेतना को लेकर चलता है।
ज्ञान के दो स्रोत हैं-जगत और जीवन। महर्षि जी दोनों को लेकर चलते हैं। उन्होंने जीवनसत्ता यानी बीइंग को विज्ञान माना है। जीवन को जीने की कला माना जाता है। महर्षि जी की व्याख्या में कला और विज्ञान अपने-अपने आग्रह दुराग्रह छोड़कर समरस हो जाते हैं। जिस प्रकार भौतिक जगत में ऊर्जाणु  का आधारभूत यथार्थ प्रत्यक्ष करना कठिन है उसी प्रकार भावातीत होने के कारण आत्मतत्व का भी प्रत्यक्षण जटिल है। किंतु भावातीत ध्यान से यह संभव है। इसमें मनोविज्ञान का तत्व भी है। मन का रूपान्तरण। भाव अनुभाव के पार जाने के लिये ध्यानावस्थित होनाविचार के पार चले जाना।
इस दृष्टि से महर्षि जी जीवन सत्ता की कला को समझने के लिये उसे तंत्रिकातंत्र यानी नर्वस सिस्टम से जोड़ते हैं। इसका स्पष्ट आशय है कि तंत्रिका तंत्र, जीवनसत्ता से अपना जुड़ाव छोड़े बिना सभी परिस्थितियों में, अपनी सम्पूर्ण क्षमता से सक्रिय रहता है। कोई भी अनुभव करने के लिये तंत्रिका तंत्र को एक विशेष स्थिति में रहना होता है।
हम फूल को कैसे देख पाते हैं, तंत्रिका तंत्र स्वयं को एक ऐसी स्थिति में एडजस्ट करता है कि हमारी आंखें खुली रहें, फूल की छाया आंख की रेटिना पर पड़ती रहे। इस प्रकार अपेक्षित संदेश मनोवेग के माध्यम से कॉरटेक्स तक पहुंचे। तंत्रिका तंत्र का यही स्थितिकरण सभी अनुभवों पर लागू होता है। तंत्रिका तंत्र के संबंध में जीवनसत्ता की कला यह है कि जागृत, सुप्त अथवा स्वप्नावस्था में रहते हुये कभी भी इसे जीवनसत्ता के अनुभव से विलग नहीं होना चाहिये। सही तौर पर देखें तो पावन जीवनसत्ता का यह अवरोधन असंभव प्रतीत होता है। अनुभव बताता है कि तंत्रिका तंत्र को एक ही समय में दो विभिन्न स्थितियों में नहीं रखा जा सकता विशेषकर ऐसी स्थितियों में जहां चेतना के दो भिन्न स्तरों पर सक्रिय रहता हो। एक समय में एक ही स्थिति में रहा जा सकता है- जागृत, स्वप्नावस्था, गहरी नींद अथवा भावातीत स्थिति। गहराई से सोचें तो अपने तंत्रिका तंत्र को इन सभी स्थितियों में रहते हुये भी परम जीवनसत्ता से जोड़े रखा जा सकता है। हमारा तंत्रिका तंत्र सृजन का अति परिपूर्ण मॉडल है।
व्यावहारिक धरातल पर इस कला को समझना होगा। जागृतावस्था में हम अपने तंत्रिकातंत्र के माध्यम से बाहरी दुनिया के सम्पर्क में रहते हुये अपनी इंद्रियों के माध्यम से विभिन्न अनुभव करते हैं। किंतु इन्हीं इन्द्रियों की सतत् गतिविधि के परिणामस्वरूप जब इनसे जुड़ा तंत्रिका तंत्र थक जाता है, तब हमारे मस्तिष्क का सम्पर्क इन्द्रियों और बाहरी जगत से टूट जाता है और जागृतावस्था धीरे-धीरे समाप्ति की ओर जाने लगती है। इन्द्रियों के स्तर पर थकान के कारण हम जागृतावस्था के बाहरी जगत का अनुभव नहीं कर सकते। किन्तु चूंकि मस्तिष्क सक्रिय रहना चाहता है तब तंत्रिका तंत्र का दूसरा कार्य मात्र उसका संदेश पहुँचाना होता है। वह सक्रिय हो जाता है और इन्द्रियों के महीन भागों को उत्तेजित कर देता है जो कि सामान्यतः जागृतावस्था का अनुभव करने के लिये उपयोग में नहीं लाये जाते और तब स्वप्नावस्था के आभासी अनुभवों का उदय होता है। जब तंत्रिका तंत्र इतना थक जाता है कि इस स्तर पर भी सक्रिय नहीं रहता तब आभासी अनुभवों की क्षमता भी समाप्त हो जाती है और निद्रावस्था जाती है।
भावातीत ध्यान की स्थिति में तंत्रिका तंत्र जिस स्थिति में आता है वह जागृति, स्वप्नावस्था या गहरी निद्रा की स्थितियों से भिन्न है। इस स्थिति में हम परम जीवनसत्ता का अनुभव करते हैं जो भावातीत चेतना की स्थिति है। इसके निरंतर अभ्यास से तंत्रिका तंत्र का उक्त तीनों स्थितियों में भटकाव रुक जाता है जो कि उसकी सामान्य प्रवृत्ति है। यह स्थिति चेतना की उक्त तीनों स्थितियों के संगम पर होती है। यही वह बिन्दु है जहां हम तंत्रिका तंत्र के स्तर पर जीवन सत्ता की कला को पा सकते हैं। जागृतावस्था और स्वप्नावस्था की चेतना के मध्य में परम चेतना की स्थिति होती है। यहां हमारा तंत्रिका तंत्र सक्रियता और निष्क्रियता के बीच निलंबित हो जाता है। अब जीवन सत्ता की कला के विषय में कर्म सिद्धांत पर भी विचार करें। कर्म-दर्शन तो क्रिया-प्रतिक्रिया का सीधा सरल दर्शन है। जैसा बोओ, वैसा काटो। ऊर्जा संरक्षण का नियम कर्म सिद्धांत का सहायक है, हमारी प्रत्येक गतिविधि हमें तथा हमारे पर्यावरण को प्रभावित करती है। मनसा, वाचा, कर्मणा तीनों ही कर्म स्तर हैं। पोखर में पत्थर फेंकें तो पत्थर भले ही डूब जाये लेकिन सतह पर लहरें तो बहती हैं। वे तो किनारे तक जाती हैं और वहां भी वे जिस पदार्थ से टकराती हैं उसे प्रभावित करती हैं। पोखर में सर्वत्र उसका प्रभाव होता है। कर्म भी इसी प्रकार कर्ता और उसके पर्यावरण को प्रभावित करता है। यह प्रभाव भी कर्म के अनुरूप होता है। कर्म की प्रतिक्रिया की तरंगें ब्रह्मांड में सर्वत्र लहराती हैं। यह गेंद की भांति गेंदबाज की ओर ही आती हैं। कर्मफल युगों-युगों तक बना रह सकता है। जो लोग पुनर्जन्म का सिद्धांत नहीं मानते उन्हें कर्मफल के फलसफे  को समझने में कठिनाई हो सकती है। हम चाहे किसी भी योनि में क्यों हों जब तक हमारी आत्मा ब्रहृत्मा में विलीन नहीं हो जाती हम कर्मफल के अधीन बने रहेंगे, इसके बाद भी हमारी संतानों को भुगतना होता है। आपके वर्तमान जीवन का सुख-दुःख, अच्छा-बुरा इसी कर्म फल का परिणाम है। सुख के बदले सुख, प्रसन्नता के बदले प्रसन्नता और आनंद के बदले आनंद मिलता है। हमें किसी से वही मिलता है जो हमने कहीं किसी को दिया था। इसीलिये कोई व्यक्ति सभी के लिये भला या बुरा नहीं हो सकता। सभी धर्मो के शास्त्र बताते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। हमें तुलनात्मक धर्म व्याख्या के चक्कर में पड़कर स्वधर्म का ही पालन करना चाहिये। महर्षि जी ने इसी सिद्धांत पर बल दिया है। देश काल परिस्थिति के अनुसार हमें हमारे शास्त्र कथन विरोधाभाषी भी लग सकते हैं। मोटे तौर पर भले-बुरे का ज्ञान हमारी अंतरात्मा करा देती है। यह ब्रह्मांड नैसर्गिक नियमों से संचलित है। विकास की समग्र ब्रह्मांडीय प्रक्रिया इसी पर आधारित है। हमारे मनसा-वाचा-कर्मणा प्रभाव इन्हीं नियमों के अनुरूप होते हैं। इसी पर चल कर व्यक्ति का मस्तिष्क भावातीत परम से जुड़ सकता है। यद्यपि कर्म प्रभाव का क्षेत्र हमारी समझ से बाहर है किंतु भावातीत ध्यान पद्धति हमें उस जीवन स्तर तक पहुंचा सकती है जहां हमारा प्रत्येक कर्म ब्रह्मांडीय जीवन के लयताल के अनुरूप हो जाता है। जब सापेक्ष अस्तित्व में जीवन सत्ता का संचार होता है तब प्रत्येक कर्म परम सत्य का कर्म बन जाता है। हम कर्म बंधन से किस प्रकार मुक्त हो सकते हैं इसे समझने के लिये यह भी समझना होगा कि बंधन और मुक्ति क्या हैं?
जीवन सत्ता अपनी प्रकृति में अनभिव्यक्त है। वह कर्म के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। कर्म अस्थायी है, परिवर्तनीय है। जीवन सत्ता अमर है, परम है। जीवन सत्ता परम प्रकृति की पावन चेतना है। कर्म तो चेतन मस्तिष्क पर आधारित है। कर्म के माध्यम से जीवन सत्ता की पावन चेतना मस्तिष्क की चेतना में बदल जाती है। जीवन सत्ता में अनंत एकता है कर्म, एकता में विभिन्नता है अतः कर्म की  प्रकृति जीवन सत्ता की प्रकृति से उलट है। जीवन सत्ता और कर्म का यही संबंध है। भावातीत ध्यान से कर्ता के मन में जीवन सत्ता का संचार हो जाता है तथा उसकी प्रकृति पर कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता। कर्म की समाप्ति संभव नहीं है। चूंकि जीवन गति है और गतिविधि है, अतः कर्म आवश्यक है। यह समझ लेना जरूरी है कि जब तक जीवन सत्ता का समावेश मस्तिष्क की प्रकृति में नहीं हो जाता तब तक कर्म बंधन से मुक्ति संभव नहीं है।
निर्बल प्रयास का प्रभाव भी निर्बल होगा। सुदृढ़ प्रयास का प्रभाव सुदृढ़ होगा। कर्म की शक्ति उसके जनक विचार की क्रिया पर निर्भर करती है। इसके लिये मस्तिष्क को जीवन सत्ता के क्षेत्र में ले जाकर जीवन सत्ता का मस्तिष्क क्षेत्र में संचार जरूरी है ताकि चेतन मस्तिष्क जीवनसत्ता के मूल्यों से लबालब भरा रहे। ऐसा होने पर मस्तिष्क की सृजन शक्ति अनन्त हो जाती है। फिर अपेक्षाकृत कम ऊर्जा के निवेश से अपेक्षित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। इस स्तर पर कर्म करने वाला कर्ता कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। कर्म का दर्शन हमें कार्य का कौशल सिखा देता है। व्यक्ति में  इसका विकास भावातीत ध्यान से होता है जोकि हमारे चेतन ध्यान को जीवन सत्ता के स्तर पर ले आता है। यह सर्वोच्च स्तर का विकास है। जीवन का उद्देश्य आनंद चेतना की उपलब्धि है, भावातीत जीवनसत्ता की ओर ध्यान आकर्षित करके इसे हासिल किया जा सकता है। हम मस्तिष्क से सक्रिय हों किंतु उसे जीवनसत्ता के स्तर पर ले जायें तो ऐसा कर्म व्यक्ति और ब्रह्मांड दोनों के लिये सही नहीं होगा। गलत कार्य नैसर्गिक नियमों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जबकि यही नियम सृजन मूल में है। ऐसा प्रयास कमजोर होता है। उसमें सफलता के लिये अत्यधिक ऊर्जा का निवेश करना पड़ता है जिससे तनाव-दबाव होता है। कर्म का उद्देश्य कुछ भी हो, प्रभावी अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने की एक ही तकनीक है-मस्तिष्क को अंतरमुखी करें ताकि वह भावातीत जीवन सत्ता के स्तर तक पहुंच कर फिर सक्रिय हो जाये।
Dr Girish Chandra Varma

ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.



घनश्याम सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.

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