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Tuesday, October 10, 2017

कैसे करें प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा का उपयोग
ज्ञानयुग के प्रवर्तक महर्षि महेश योगी जी अपने प्रवचनों में बारंबार प्रकृति के नियम (नेचुरल लॉ) और राष्ट्रीय नियमों (नेशनल लॉ) का उल्लेख करते हैं जो मानव गतिविधि के नियंता और निर्देशक हैं। महर्षि जी नैसर्गिक विधान को राष्ट्रीय विधान से भी ऊपर मानते हैं। मानव में निहित सम्पूर्ण संभावनाओं की चर्चा भी महर्षि जी इसी संदर्भ में करते हैं। सर्वविदित है कि हमारी व्यक्तिगत पहचान तो देश, काल और परिस्थिति की सीमाओं में है किंतु व्यक्तिगत जीवन की सीमायें वास्तव में शाश्वत् जीवन के अनहद क्षितिज को छूती हैं। यह समझ में आ गया है कि हम न केवल दैवी प्रज्ञा के अंश हैं, सनातन जीवन-सागर पर एक लहर हैं बल्कि हममें ब्रह्माण्डीय जीवन की थाह लेने की क्षमता है और हम जीवनसत्ता की परमशक्ति का पूरा-पूरा लाभ लेने में भी समर्थ हैं। गुरुदेव श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज, ज्योतिष्पीठोद्धारक शंकराचार्य, बद्रिकाश्रम के आशीर्वाद और भारत की महान संत-परम्परा ने इन भावनाओं को पहले ही रेखांकित कर दिया है। भावातीत ध्यान की सीधी-साधी प्रक्रिया से यह सब संभव है। विकास की धारा में व्यक्तिगत चेतना स्वभावतः बनी रहेगी और व्यक्ति के विकास को आगे बढ़ायेगी।
सर्वशक्तिमान प्रकृति के उपयोग का यह सरल तरीका है। स्वयं को खोकर और सर्वशक्तिमान की शक्ति प्राप्त करके हमारा जीवन परिपूर्ण हो जाता है। यह समर्पण की अवधारणा है। व्यक्ति का जीवन सापेक्ष भी है और परम भी है। व्यक्ति परम जीवनसत्ता के सम्पर्क में पहले से है। अब इसे चेतना के स्तर तक लाना है।
  भावातीत ध्यान बुद्धि और भावना की गांठों से परे है। उसके लिये सहज-सरल प्रकृति चाहिये जो यथार्थतः मानव स्वभाव के मूल में है। भावातीत ध्यान विधि से हम सर्वस्व क्रिया के स्त्रोत-प्रकृति को समर्पित हो जाते हैं और दैवी प्रज्ञा के चरम सचेतन क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। उस स्तर पर पहुंचकर हम प्रकृति की शक्ति का स्वतः मानवीय समझ के स्तर पर, जब तक कि चेतन मस्तिष्क का विस्तार जीवनसता के स्तर पर नहीं हो जाता, तब तक हम सर्वशक्तिमान प्रकृति की शक्तियों का उपयोग नहीं कर सकते। प्रभु के प्रति समग्र समर्पण कभी भी केवल वैचारिक धरातल पर नहीं हो सकता, उसे सदैव जीवनसत्ता के स्तर पर ही होना होगा। चेतन-मस्तिष्क को विचार और भावना के परे जाना होगा। देवी जीवनसत्ता में समावेश के बिना यह संभव नहीं हैं।
समर्पण की अवधारणा को बौद्धिक स्तर पर समझना आसान नहीं है। प्रभु और प्रकृति के प्रति समर्पण से जीवन में अत्यंत उन्नत विचार आते हैं। इससे देश-काल कार्य-कारण वह व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और जीवनसत्ता की असीम सनातन स्थिति प्राप्त हो जाती है। यह भावातीत चेतना से ही संभव है। हरिइच्छा के प्रति समर्पण होना ठीक है। किंतु सापेक्ष अस्तित्व की सीमाओं के परे जाने की विधि के अभाव में शताब्दियों तक यह व्यवहार्थ नहीं था। यह तो मात्र रहस्यात्मक जीवन दृष्टि बनकर रह गया था। भावातीत ध्यान विधि ने इसे व्यवहार्थ बना दिया। इसके अभाव में सर्वशक्तिमान प्रकृति की शक्तियों का उपयोग कल्पना मात्र था। लक्ष्मीपति का बेटा अपनी यौगिक सम्पदा का उपयोग कर सकता है। हम प्रभु के पुत्र हैं तो सम्पूर्ण समर्पण से उनकी प्रभुता का उपयोग कर सकते हैं। भावातीत ध्यान विधि हमें ब्रह्माण्डीय चेतना के स्तर तक पहुंचा देती है। सौभाग्यशाली हैं वे जो इस स्तर तक पहुंच कर ब्रह्माण्डीय जीवनसत्ता से तालमेल बैठा लेते हैं फिर सम्पूर्ण प्रकृति उसकी आवश्यकतानुसार संचालित होने लगती है। उसकी सारी इच्छा ब्रह्माण्डीय उद्देश्य के अनुरूप हो जाती है। उसका जीवन ब्रह्माण्डीय विकास के पथ पर स्वयंमेव चल पड़ता है। प्रभु-चरण में समर्पित होकर वह प्रभु के लिये और प्रभु उसके लिये हो जाते हैं। वह प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा का उपयोग करने लगता है और प्रकृति उसका उपयोग सृजन और विकास के लिये करती है।
कुछ लोग यह काम आत्माओं का आव्हान करके करते हैं। इसके लिये अलौकिक शक्तियों को माध्यम बनाया जाता है किंतु इनमें से किसी के भी पास प्रकृति की समग्र शक्ति नहीं होती। ये मानव से अधिक शक्तिशाली हो सकता है किंतु इस माध्यम को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये। प्रकृति की थोड़ी-सी ऊर्जा इनके माध्यम से मिल सकती है किंतु इसके बदले में ऐसे अलौकिक माध्यम आप पर हावी हो जाते हैं। उद्योगों में पूंजी लगाते समय हम यही तो सोचते हैं कि कम से कम समय और पूंजी लगाकर अधिकाधिक लाभ मिले। आत्माओं से सम्पर्क करके परमात्मा से सम्पर्क नहीं किया जा सकता। ऐसा करके दिशाभ्रम हो सकता है। सही दिशा-निर्देश के अभाव में ऐसा होता है। भावातीत ध्यान सिखाने वाले शिक्षकों की संख्या अभी कम है। इसलिये लोग अलौकिक मार्ग अपनाते हैं-विशेषकर पश्चिमी देशों में। सही दिशा-निर्देश के बिना उच्च शक्तियां प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा बहुतों को असामान्य माध्यम अपनाने की तरफ ले जती है। अतः सही दिशा निर्देश बुनियादी महत्व का है।
कुछ लोग मस्तिष्क पर ध्यान केन्द्रित करके उसे नियंत्रित करने का अभ्यास करते हैं। परंतु इससे भी सीमित सफलता ही मिलती है। यह मानवीय आकांक्षाओं को नष्ट करना है। यदि एक दुर्ग ऐसा है जो अति विशाल क्षेत्र पर नियंत्रण करता है तो क्यों न उसी पर कब्जा कर लिया जाए। फिर उससे नियंत्रित सब कुछ आपका हो सकता है। किन्तु यदि आप उसी क्षेत्र की बहुमूल्य वस्तुओं को अलग-अलग प्रयास करके प्राप्त करना चाहें तो यह समय और ऊर्जा के साथ अन्याय होगा।
समस्त मानसिक शक्तियां जीवनसत्ता का ही अंग हैं। चूंकि हमारे पास जीवनसत्ता से ही प्रत्यक्ष सम्पर्क की विधि है तो फिर हम इतर अलौकिक माध्यमों में क्यों भटकें, मस्तिष्क पर जोर लगाना नितांत आवश्यक है।
अतः सर्वोत्तम उपाय यही है कि समस्त जिज्ञासु वर्ग भावातीत ध्यान विधि का अभ्यास करके अपनी चेतना के स्तर को ब्रह्माण्डीय चेतना के धरातल तक ले जायें। तब वे एक ऐसी स्थिति में आ सकेंगे जहां अप्रयास ही प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा उन्हें प्राप्त हो जायेगी और जीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा। उनकी समस्त आवश्यकतायें स्वयंमेव पूरी होने लगेंगी।
कुछ लोगों को यह समझाया गया है कि सकारात्मक चिन्तन की शक्ति प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति है। उनसे कहा गया है कि वे अपने जीवन को सकारात्मक विचारों पर आधारित करें। मात्र विचारों पर जीवन को आधारित करना समझदारी नहीं है। केवल विचार ही जीवन का ठोस आधार कभी नहीं बन सकते। जीवनसत्ता ही प्राकृतिक आधार है। भावातीत ध्यान के माध्यम से हम जीवनसत्ता का अनुभव कर सकते हैं। इससे दैनंदिन व्यावहारिक जीवन में सर्वशक्तिमान प्रकृति की ऊर्जा प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है, जीवन-स्तर का उदात्तीकरण हो जाता है। विचार तो कल्पना मात्र है। विचारों के सुदृढ़ीकरण के लिये भी जीवनसत्ता का अनुभव आवश्यक है।
यद्यपि सकारात्मक विचार नकारात्मक विचारों से उत्तम हैं किंतु केवल उन्हीं पर जीवन आधारित करना काल्पनिक होगा। जीवनसत्ता की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरते। वैचारिक कल्पना तो मृग मरीचिका है। आप विचारों में स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट समझें तो क्या वैसे हो जायेंगे? अतः सकारात्मक विचार फलस्वरूपों को जीवनसत्ता के फलरूपों में रूपान्तरित करना होगा। यह मस्तिष्क का विज्ञान नहीं है, यह तो जीवनसत्ता का विज्ञान है। अन्य सभी विधियां तो छलावा हैं। हवा में किले बनाने की तरह हैं।
मस्तिष्क नहीं बल्कि जीवनसत्ता की शक्ति ही जीवन का वास्तविक आधार है। वह तो मस्तिष्क की पूरक है। समस्त भौतिक विज्ञान सापेक्ष क्षेत्र में है। मानव भी अस्तित्व के सापेक्ष क्षेत्र में ही है। सभी विज्ञानों की भांति मस्तिष्क का विज्ञान भी जीवन के सापेक्ष क्षेत्र का विज्ञान है। जीवनसत्ता का विज्ञान सनातन अस्तित्व का विज्ञान है। अतः जीवनसत्ता का शक्ति प्राप्त करना अपेक्षित है। इस शक्ति को भावातीत ध्यान विधि के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह तुरीय चेतना प्राप्ति की विधि है। यह विधि नितान्त सहज और सरल है तथा इसका अभ्यास नियमित करना श्रेयस्कर है।


ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

डा. घनश्याम सक्सेना

प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.

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