पूर्व-जन्म की अतृप्ति है पुनर्जन्म का कारण
मन, मानस और मस्तिष्क में क्या अंतर
है? सूक्ष्म और महीन अंतर है। संज्ञान के स्तर का अंतर है। चेतना
के विकास का अंतर है। इन्द्रिय-मन सर्वाथग्राही है जो रुप, रस,
स्पर्श, गंध आदि को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण
करता है। संकलन-विकलन से ओतप्रोत मन जब प्रवृत्ति, स्मृति और
कल्पना के माध्यम से इच्छा करता है तो विशुद्ध मस्तिष्क प्रज्ञा के माध्यम से वह क्षीर-विवेक
कर सकता है। असत् से सत् में प्रवेश हमारा लक्ष्य है जिसकी शत्-प्रतिशत उपलब्धि असंभव
तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। हम अभ्यास से असत् को क्षीण तथा रज और तम को न्यूनतम
तो कर ही सकते हैं।
ज्ञानयुग के
प्रणेता महर्षि महेश योगी जी इसे सरल मुहावरों में समझाते हैं। हम किसी भी विषय का
अनुभव इन्द्रियों को मस्तिष्क से जोड़कर करते हैं। विषय, इन्द्रियों के माध्यम से मस्तिष्क
के संपर्क में आता है, उसे प्रभावित करता है और मस्तिष्क की मूल
प्रवृत्ति पर छा जाता है। इस प्रकार अनुभव-प्रक्रिया जीवनसत्ता पर छा जाती है। यह विषय
से जीवनसत्ता की पहचान है। इस प्रकार हमारा अंतरंग हमारे बहिरंग से जुड़कर अपनी मूल
प्रवृत्ति खो देता है। परिणामतः अनुभव, अनुभवी को अपनी स्वयं
की जीवनसत्ता से दूर कर देता है। ‘‘जीने की कला का सीधा आशय यह है कि विषय का अनुभव
मस्तिष्क में जीवनसत्ता पर भारी न पड़े अर्थात् उसका अनुभव करते हुये भी जीवनसत्ता को
अक्षुण्ण बनाये रखे। इसी से हम समदृष्टा बनते हैं, ज्ञाता बनते
हैं, देखते हैं, जानते हैं, अनुभव करते हैं, प्रवृत्त रहते हुये भी निवृत्त हो जाते
हैं।
विषय का अनुभव
करते हुये भी मस्तिष्क जीवनसत्ता से जुड़ा रह सकता है, अनुभवकर्ता बहिरंग विश्व का अनुभव
करते हुये भी अनुभव से युक्त रह सकता है। जीवनसत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखकर अनुभव-प्रक्रिया
और भी मजबूत हो जाती है। हम अनुभावातीत के समस्त मूल्यों तथा परमानंद चेतना के साथ-सापेक्ष
सृजन के अनुभवों से जुड़े रहकर भी एकीकृत जीवन जी सकते हैं। यही है मस्तिष्क के स्तर
पर जीने की कला जो व्यक्तिगत जीवन को ब्रह्मांडीय जीवन से जोड़ती है। व्यक्तिगत जीवन
में अनुभव के स्तर पर जीने की कला यही तो है। यदि मन विषयी जीवन में लिप्त हो जाता
है तो इस अनुभव का प्रभाव मन पर बीज के समान पड़ता है जो समान अनुभवों पर आधारित भावी
इच्छाओं को जन्म देता है। इस प्रकार अनुभव, प्रभाव और इच्छाओं
का चक्र चलता जाता है। जीवन-मृत्यु का चक्र इन्हीं का परिणाम है। इस चक्र को समझने
के लिये पहले यह समझें कि पूर्व जन्म की अतृप्त इच्छाओं का परिणाम ही पुनर्जन्म है,
शरीर-त्याग के पूर्व आशा-इच्छा की पूर्ति न होना अतृप्त रह जाना है।
अतः हमारा अन्तरमन देह-सृजन के माध्यम से पूर्व-जन्म की अतृप्त इच्छाओं को तृप्त करने
का उद्योग करता है। आदिशंकराचार्य का ‘भज गोविन्दं’ सटीक हैः
‘‘पुनरपिजन्मं पुनरपिमरणम् पुनरपिजननी जठरे
शयनम्
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्’’
जन्म के समय
पूर्व-जन्म के अनुभवों का प्रभाव मस्तिष्क में गहरी जड़ें जमाये रहता है। ये भावी इच्छाओं
के बीज हैं। जब तक यह दुष्चक्र टूटता नहीं है तब तक जीवन-मरण का क्रम चलता रहता है।
किंतु यदि जीवनसत्ता का मूल अनुभव सभी अनुभवों और धारणाओं पर भारी पड़ता रहता है तो
फिर सभी प्रभाव क्षणभंगुर हो जाते हैं। प्रभाव रहते हैं लेकिन वे इतने सुदृढ़ नहीं होते
कि भावी कर्म प्रक्रिया का बीज बने रहें। शहद चख लेने के बाद अन्य मधुर स्वाद निष्प्रभावी
हो जाते हैं। जब अंतरंग आनंद स्त्रोत जीवनसत्ता का प्रभाव स्थायी रहता है तो फिर अन्य
अनुभव बस अनुभव मात्र हैं। पानी की लहर की भांति आते हैं और चले जाते हैं। यदि मस्तिष्क
में जीवनसत्ता मूलतः स्थापित नहीं है तो फिर बहिरंग अनुभव पत्थर की लकीर बन जाते हैं, जीवनसत्ता की प्रतिष्ठापना तो
भावातीत ध्यान पद्धति के निरंतर अभ्यास से ही संभव है।
अच्छे-बुरे
अनुभवों और कर्मफल के रूप में सुख-दुःख के अनुभव को लेकर भर्तृहरि ने जो लिखा है वह
माननीय और चिंतनीय हैः
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद।
भयं मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम।।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं
काये मत्यम् कृतान्ताद्भयं।
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शंभोपदं निर्भयम।।
अर्थात् भोग
में रोग का भय, ऊंचे कुल में
उत्पन्न होने पर नीचे गिरने का भय, धन रहने पर राज-प्रकोप का
भय, मान में दीनता भय, बलवान को शत्रु का
भय, सौन्दर्य को बुढ़ापे का भय, विद्वान
को वाद-विवाद का भय, विनयी को दुष्टों का भय और शरीर रहने पर
काल का भय रहने के कारण सभी स्थितियां भयप्रद हैं। एक मात्र शिवचरण ही भयमुक्त स्थान
हैं, भर्तृहरि का उक्त श्लोक आत्मा या जीवनसत्ता को त्रिगुण प्रभावों
से मुक्त रखने का संदेश देता है। महर्षि जी ने जीवनसत्ता को विषयानुभव पश्चात् भी विषयानुभव
युक्त रखने की बात कही है। यह जीवनसत्ता से संस्कारित मन, मानस
और मस्तिष्क की कर्मयुक्ति है। इसे ही भगवान कृष्ण ने गीता में ‘कर्मण्य कर्म यः’ अर्थात्
‘कर्म में अकर्म’ कहा है। कर्म अर्थात् माया, अकर्म यानी ब्रह्म
जिसे महर्षि जी दार्शनिक शब्दावली में जीवनसत्ता (being) कहते हैं।
लेकिन इस कर्म-साधना
में महर्षि जी स्वास्थ्य पर बल देते हैं- भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य और इनके बीच संतुलन तथा समरसता।
जीवनसत्ता अपरिवर्तनीय है, अस्तित्व का सनातन चरण है,
बहुलवादी सृष्टि में सर्वव्यापी है, विभिन्नताओं
में एकता स्थापित करने वाली है, जीवन-मूल्यों को ब्रह्मांडीय
सनातन मूल्यों से जोड़ने वाली है।
इसलिये महर्षि
जी ने सब प्रकार के भय से मुक्ति की बात भी कही है। यदि जीवन के चैतन्य स्तर पर विघ्न-बाधा
है तो वहां जीवनसत्ता की स्थापना कठिन है। उससे तो दुःख और पीड़ा में वृद्धि ही होगी।
चूंकि मन देह और परिस्थितियों के स्तर पर जीवनसत्ता की प्रतिष्ठापना का एक माध्यम है
अतः उसे अपनाने से संपूर्ण स्वास्थ्य लाभ संभव है। जिस प्रकार वृक्ष के तने, डालियों और फल-फूल का मुख्याधार
उसका रस होता है उसी प्रकार जीवनसत्ता का सर्वव्यापी सनातन अस्तित्व व्यक्ति के स्तर
पर शरीर, मनरूस्थिति और परिस्थिति का मूलाधार है। वृक्ष के सार
तत्व को वैज्ञानिक सैप कहते हैं। यदि सार-तत्व वृक्ष के सतही-स्तर तक न पहुंच पाये
तो वृक्ष सूख सकता है। इसी भांति जब जीवनसत्ता यानी ‘बीइंग’ को जीवन के सतही स्तर पर
नहीं ला पाते तो जीवन के बाह्य आयामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
यदि स्वास्थ्य
और समरसता भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक मूल्यों का आनंद लेना है तो जीवनसत्ता के भावातीत मूल्यों
का जीवन के समस्त आयामों में समावेश आवश्यक है। शरीर, मस्तिष्क
और परिस्थितियां यानी अंतरंग और बहिरंग जीवन के आयाम ही हैं। इनके बीच स्वस्थ समायोजन
भी होना चाहिये। इसका एक विकल्प भी है-मस्तिष्क, शरीर और परिस्थितिगत
मूल्यों को जीवनसत्ता के स्तर तक लाना। इनमें से किसी भी विधि को अपना कर स्वास्थ्य
का उद्देश्य सिद्ध हो जाता है।
सोचते या अनुभव
करते समय हमारा मस्तिष्क जीवनसत्ता को स्वभावतः पकड़े रहता है। किंतु इस विचार या अनुभव
को मस्तिष्क पर हावी नहीं होने देना है, यही है मस्तिष्क के स्तर पर जीवनसत्ता की कला। जब जीवनसत्ता मस्तिष्क
के स्तर पर होती है तो विचार और अनुभव का प्रवाह नैसर्गिक नियमों के अनुसार ही होता
है। यह व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय स्तर पर विकासवाद का नैसर्गिक प्रवाह है। चाहे हम
जागृतावस्था में हों या फिर स्वप्नावस्था अथवा गहरी निद्रावस्था में क्यों न हों प्रत्येक
स्थिति में जीवनसत्ता का ही वर्चस्व होना चाहिये। जीवनसत्ता तो भावातीत प्रकृति की
है। वह परम-चरम चेतना है। भावातीत ध्यान के माध्यम से चैतन्य मस्तिष्क विचार प्रक्रिया
की अटल गहराई तक पहुंच जाता है और इस प्रकार सूक्ष्म विचार के भी परे जीवनसत्ता के
स्तर तक पहुंच जाता है।
अतः भावातीत
ध्यान-पद्धति वह कला है जिससे चैतन्य मस्तिष्क को जीवनसत्ता के स्तर पर लाया जा सकता
है अथवा जीवनसत्ता को चैतन्य मस्तिष्क की परिधि में ला सकते हैं। सतत् अभ्यास से यह
संभव है, इससे मस्तिष्क की चैतन्य क्षमता
में वृद्धि हो जाती है। मस्तिष्क की समस्त संभावनाओं का उपयोग कर सकते हैं। कुछ भी
अचेतन या अवचेतन नहीं रहता। सब कुछ चैतन्य हो जाता है। जीवनसत्ता की प्रकृति ही परमानंद
की चेतना है, यहां मस्तिष्क स्थिर होकर चैतन्य, संतुष्ट, स्वस्थ और आनंदित हो जाता है। वह ब्रह्मांडीय
जीवन की असीमित सृजनात्मक प्रज्ञा के संपर्क में आ जाता है, उसे
असीम ऊर्जा मिलती है। भावातीत ध्यान तो विचार के सूक्ष्म स्तरीय अनुभव पर आधारित है।
विचार, तंत्रिकातंत्र अर्थात् नर्वस सिस्टम के भौतिक स्तर पर
आधारित है। अतः जो भी इस स्तर को प्रभावित करता है वह विचार को भी प्रभावित करता है।
भोजन का निर्णायक प्रमाण पड़ता है क्योंकि वह रक्त-प्रवाह के माध्यम से तंत्रिका तंत्र
पर प्रभाव डालता है। भोजन की गुणवत्ता मस्तिष्क की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। यह
भी महत्वपूर्ण है कि भोजन अर्थात् जीविका कैसे कमाई गई है। यहां नैतिकता अर्थात् ईमानदारी
और बेईमानी से जुटाया गया साधन जीवन की गुणवत्ता निर्धारित करने में निर्णायक योगदान
करता है। मान्यता है कि भोजन पकाने वाले की चित्त वृत्तियां भी प्रभावकारी होती हैं।
भोजन करते समय की मनःस्थिति और परिस्थिति भी प्रभाव डालती है। इसलिये भोजन को परमात्मा
का आशीर्वद मानकर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में ग्रहण करना चाहिये।
भावातीत ध्यान
के निरंतर अभ्यास से जीवन में उसके मूल अर्थात् जीवनसत्ता से जुड़कर जो आत्मतृप्ति की
प्राप्ति होती है वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त कर सकती है और मोक्ष प्रदायिनी होती
है।
कुलाधिपति, महर्षि महेश
योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.
डा. घनश्याम
सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक
एवं चिन्तक, भोपाल,
म.प्र.