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Tuesday, October 31, 2017

          पूर्व-जन्म की अतृप्ति है पुनर्जन्म का कारण         

मन, मानस और मस्तिष्क में क्या अंतर है? सूक्ष्म और महीन अंतर है। संज्ञान के स्तर का अंतर है। चेतना के विकास का अंतर है। इन्द्रिय-मन सर्वाथग्राही है जो रुप, रस, स्पर्श, गंध आदि को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है। संकलन-विकलन से ओतप्रोत मन जब प्रवृत्ति, स्मृति और कल्पना के माध्यम से इच्छा करता है तो विशुद्ध मस्तिष्क प्रज्ञा के माध्यम से वह क्षीर-विवेक कर सकता है। असत् से सत् में प्रवेश हमारा लक्ष्य है जिसकी शत्-प्रतिशत उपलब्धि असंभव तो नहीं किंतु कठिन अवश्य है। हम अभ्यास से असत् को क्षीण तथा रज और तम को न्यूनतम तो कर ही सकते हैं।
ज्ञानयुग के प्रणेता महर्षि महेश योगी जी इसे सरल मुहावरों में समझाते हैं। हम किसी भी विषय का अनुभव इन्द्रियों को मस्तिष्क से जोड़कर करते हैं। विषय, इन्द्रियों के माध्यम से मस्तिष्क के संपर्क में आता है, उसे प्रभावित करता है और मस्तिष्क की मूल प्रवृत्ति पर छा जाता है। इस प्रकार अनुभव-प्रक्रिया जीवनसत्ता पर छा जाती है। यह विषय से जीवनसत्ता की पहचान है। इस प्रकार हमारा अंतरंग हमारे बहिरंग से जुड़कर अपनी मूल प्रवृत्ति खो देता है। परिणामतः अनुभव, अनुभवी को अपनी स्वयं की जीवनसत्ता से दूर कर देता है। ‘‘जीने की कला का सीधा आशय यह है कि विषय का अनुभव मस्तिष्क में जीवनसत्ता पर भारी न पड़े अर्थात् उसका अनुभव करते हुये भी जीवनसत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखे। इसी से हम समदृष्टा बनते हैं, ज्ञाता बनते हैं, देखते हैं, जानते हैं, अनुभव करते हैं, प्रवृत्त रहते हुये भी निवृत्त हो जाते हैं।
विषय का अनुभव करते हुये भी मस्तिष्क जीवनसत्ता से जुड़ा रह सकता है, अनुभवकर्ता बहिरंग विश्व का अनुभव करते हुये भी अनुभव से युक्त रह सकता है। जीवनसत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखकर अनुभव-प्रक्रिया और भी मजबूत हो जाती है। हम अनुभावातीत के समस्त मूल्यों तथा परमानंद चेतना के साथ-सापेक्ष सृजन के अनुभवों से जुड़े रहकर भी एकीकृत जीवन जी सकते हैं। यही है मस्तिष्क के स्तर पर जीने की कला जो व्यक्तिगत जीवन को ब्रह्मांडीय जीवन से जोड़ती है। व्यक्तिगत जीवन में अनुभव के स्तर पर जीने की कला यही तो है। यदि मन विषयी जीवन में लिप्त हो जाता है तो इस अनुभव का प्रभाव मन पर बीज के समान पड़ता है जो समान अनुभवों पर आधारित भावी इच्छाओं को जन्म देता है। इस प्रकार अनुभव, प्रभाव और इच्छाओं का चक्र चलता जाता है। जीवन-मृत्यु का चक्र इन्हीं का परिणाम है। इस चक्र को समझने के लिये पहले यह समझें कि पूर्व जन्म की अतृप्त इच्छाओं का परिणाम ही पुनर्जन्म है, शरीर-त्याग के पूर्व आशा-इच्छा की पूर्ति न होना अतृप्त रह जाना है। अतः हमारा अन्तरमन देह-सृजन के माध्यम से पूर्व-जन्म की अतृप्त इच्छाओं को तृप्त करने का उद्योग करता है। आदिशंकराचार्य का ‘भज गोविन्दं’ सटीक हैः
‘‘पुनरपिजन्मं पुनरपिमरणम् पुनरपिजननी जठरे शयनम्
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्’’
जन्म के समय पूर्व-जन्म के अनुभवों का प्रभाव मस्तिष्क में गहरी जड़ें जमाये रहता है। ये भावी इच्छाओं के बीज हैं। जब तक यह दुष्चक्र टूटता नहीं है तब तक जीवन-मरण का क्रम चलता रहता है। किंतु यदि जीवनसत्ता का मूल अनुभव सभी अनुभवों और धारणाओं पर भारी पड़ता रहता है तो फिर सभी प्रभाव क्षणभंगुर हो जाते हैं। प्रभाव रहते हैं लेकिन वे इतने सुदृढ़ नहीं होते कि भावी कर्म प्रक्रिया का बीज बने रहें। शहद चख लेने के बाद अन्य मधुर स्वाद निष्प्रभावी हो जाते हैं। जब अंतरंग आनंद स्त्रोत जीवनसत्ता का प्रभाव स्थायी रहता है तो फिर अन्य अनुभव बस अनुभव मात्र हैं। पानी की लहर की भांति आते हैं और चले जाते हैं। यदि मस्तिष्क में जीवनसत्ता मूलतः स्थापित नहीं है तो फिर बहिरंग अनुभव पत्थर की लकीर बन जाते हैं, जीवनसत्ता की प्रतिष्ठापना तो भावातीत ध्यान पद्धति के निरंतर अभ्यास से ही संभव है।
अच्छे-बुरे अनुभवों और कर्मफल के रूप में सुख-दुःख के अनुभव को लेकर भर्तृहरि ने जो लिखा है वह माननीय और चिंतनीय हैः
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद।
भयं मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम।।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये मत्यम् कृतान्ताद्भयं।
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुविनृणां शंभोपदं निर्भयम।।
अर्थात् भोग में रोग का भय, ऊंचे कुल में उत्पन्न होने पर नीचे गिरने का भय, धन रहने पर राज-प्रकोप का भय, मान में दीनता भय, बलवान को शत्रु का भय, सौन्दर्य को बुढ़ापे का भय, विद्वान को वाद-विवाद का भय, विनयी को दुष्टों का भय और शरीर रहने पर काल का भय रहने के कारण सभी स्थितियां भयप्रद हैं। एक मात्र शिवचरण ही भयमुक्त स्थान हैं, भर्तृहरि का उक्त श्लोक आत्मा या जीवनसत्ता को त्रिगुण प्रभावों से मुक्त रखने का संदेश देता है। महर्षि जी ने जीवनसत्ता को विषयानुभव पश्चात् भी विषयानुभव युक्त रखने की बात कही है। यह जीवनसत्ता से संस्कारित मन, मानस और मस्तिष्क की कर्मयुक्ति है। इसे ही भगवान कृष्ण ने गीता में ‘कर्मण्य कर्म यः’ अर्थात् ‘कर्म में अकर्म’ कहा है। कर्म अर्थात् माया, अकर्म यानी ब्रह्म जिसे महर्षि जी दार्शनिक शब्दावली में जीवनसत्ता (being) कहते हैं।
लेकिन इस कर्म-साधना में महर्षि जी स्वास्थ्य पर बल देते हैं- भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य और इनके बीच संतुलन तथा समरसता। जीवनसत्ता अपरिवर्तनीय है, अस्तित्व का सनातन चरण है, बहुलवादी सृष्टि में सर्वव्यापी है, विभिन्नताओं में एकता स्थापित करने वाली है, जीवन-मूल्यों को ब्रह्मांडीय सनातन मूल्यों से जोड़ने वाली है।
इसलिये महर्षि जी ने सब प्रकार के भय से मुक्ति की बात भी कही है। यदि जीवन के चैतन्य स्तर पर विघ्न-बाधा है तो वहां जीवनसत्ता की स्थापना कठिन है। उससे तो दुःख और पीड़ा में वृद्धि ही होगी। चूंकि मन देह और परिस्थितियों के स्तर पर जीवनसत्ता की प्रतिष्ठापना का एक माध्यम है अतः उसे अपनाने से संपूर्ण स्वास्थ्य लाभ संभव है। जिस प्रकार वृक्ष के तने, डालियों और फल-फूल का मुख्याधार उसका रस होता है उसी प्रकार जीवनसत्ता का सर्वव्यापी सनातन अस्तित्व व्यक्ति के स्तर पर शरीर, मनरूस्थिति और परिस्थिति का मूलाधार है। वृक्ष के सार तत्व को वैज्ञानिक सैप कहते हैं। यदि सार-तत्व वृक्ष के सतही-स्तर तक न पहुंच पाये तो वृक्ष सूख सकता है। इसी भांति जब जीवनसत्ता यानी ‘बीइंग’ को जीवन के सतही स्तर पर नहीं ला पाते तो जीवन के बाह्य आयामों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
यदि स्वास्थ्य और समरसता भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक मूल्यों का आनंद लेना है तो जीवनसत्ता के भावातीत मूल्यों का जीवन के समस्त आयामों में समावेश आवश्यक है। शरीर, मस्तिष्क और परिस्थितियां यानी अंतरंग और बहिरंग जीवन के आयाम ही हैं। इनके बीच स्वस्थ समायोजन भी होना चाहिये। इसका एक विकल्प भी है-मस्तिष्क, शरीर और परिस्थितिगत मूल्यों को जीवनसत्ता के स्तर तक लाना। इनमें से किसी भी विधि को अपना कर स्वास्थ्य का उद्देश्य सिद्ध हो जाता है।
सोचते या अनुभव करते समय हमारा मस्तिष्क जीवनसत्ता को स्वभावतः पकड़े रहता है। किंतु इस विचार या अनुभव को मस्तिष्क पर हावी नहीं होने देना है, यही है मस्तिष्क के स्तर पर जीवनसत्ता की कला। जब जीवनसत्ता मस्तिष्क के स्तर पर होती है तो विचार और अनुभव का प्रवाह नैसर्गिक नियमों के अनुसार ही होता है। यह व्यक्तिगत और ब्रह्मांडीय स्तर पर विकासवाद का नैसर्गिक प्रवाह है। चाहे हम जागृतावस्था में हों या फिर स्वप्नावस्था अथवा गहरी निद्रावस्था में क्यों न हों प्रत्येक स्थिति में जीवनसत्ता का ही वर्चस्व होना चाहिये। जीवनसत्ता तो भावातीत प्रकृति की है। वह परम-चरम चेतना है। भावातीत ध्यान के माध्यम से चैतन्य मस्तिष्क विचार प्रक्रिया की अटल गहराई तक पहुंच जाता है और इस प्रकार सूक्ष्म विचार के भी परे जीवनसत्ता के स्तर तक पहुंच जाता है।
अतः भावातीत ध्यान-पद्धति वह कला है जिससे चैतन्य मस्तिष्क को जीवनसत्ता के स्तर पर लाया जा सकता है अथवा जीवनसत्ता को चैतन्य मस्तिष्क की परिधि में ला सकते हैं। सतत् अभ्यास से यह संभव है, इससे मस्तिष्क की चैतन्य क्षमता में वृद्धि हो जाती है। मस्तिष्क की समस्त संभावनाओं का उपयोग कर सकते हैं। कुछ भी अचेतन या अवचेतन नहीं रहता। सब कुछ चैतन्य हो जाता है। जीवनसत्ता की प्रकृति ही परमानंद की चेतना है, यहां मस्तिष्क स्थिर होकर चैतन्य, संतुष्ट, स्वस्थ और आनंदित हो जाता है। वह ब्रह्मांडीय जीवन की असीमित सृजनात्मक प्रज्ञा के संपर्क में आ जाता है, उसे असीम ऊर्जा मिलती है। भावातीत ध्यान तो विचार के सूक्ष्म स्तरीय अनुभव पर आधारित है। विचार, तंत्रिकातंत्र अर्थात् नर्वस सिस्टम के भौतिक स्तर पर आधारित है। अतः जो भी इस स्तर को प्रभावित करता है वह विचार को भी प्रभावित करता है। भोजन का निर्णायक प्रमाण पड़ता है क्योंकि वह रक्त-प्रवाह के माध्यम से तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डालता है। भोजन की गुणवत्ता मस्तिष्क की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि भोजन अर्थात् जीविका कैसे कमाई गई है। यहां नैतिकता अर्थात् ईमानदारी और बेईमानी से जुटाया गया साधन जीवन की गुणवत्ता निर्धारित करने में निर्णायक योगदान करता है। मान्यता है कि भोजन पकाने वाले की चित्त वृत्तियां भी प्रभावकारी होती हैं। भोजन करते समय की मनःस्थिति और परिस्थिति भी प्रभाव डालती है। इसलिये भोजन को परमात्मा का आशीर्वद मानकर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में ग्रहण करना चाहिये।
भावातीत ध्यान के निरंतर अभ्यास से जीवन में उसके मूल अर्थात् जीवनसत्ता से जुड़कर जो आत्मतृप्ति की प्राप्ति होती है वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त कर सकती है और मोक्ष प्रदायिनी होती है।


ब्रह्मचारी गिरीश
https://www.facebook.com/BrahmachariGirishJi
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

डा. घनश्याम सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.


Monday, October 23, 2017

           आनंदमय चेतना है जीवनसत्ता का स्वभाव   
यह ब्रह्मांड अनंत है। परिवर्तन इसका सतत् नियम है। जीवन और मृत्यु तो इसके छोटे से अंग है। किन्तु जो अमर है, परम है, सनातन है वह है जीवनसत्ता। यक्ष प्रश्न है कि यह जीवनसत्ता क्या है? वस्तुतः इसे जानना एक कला है। एक विज्ञान है। क्या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जीने का ढंग ऐसा नहीं हो सकता कि उससे व्यक्ति के साथ-साथ ब्रह्मांड भी सकारात्मक रूप से प्रभावित हो? हम जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तथा जीने की विभिन्न तकनीकों पर गंभीरता और गहराई से विचार करें तो इस प्रश्न का उत्तर संभव है।
जीवनसत्ता जिसे अंग्रेजी में बीइंग कहा गया है जीवन का मूल तत्व है। इसकी प्रकृति भावातीत है। इसकी मूल्यगत विशेषता दैनंदिन जीवन की प्रत्यक्ष चरित्रगत विशेषताओं से परे है। अतः जीवनसत्ता की कला के निहितार्थ है कि जीवन-मूल्यों का उपयोग व्यक्ति तथा ब्रह्मांड के कल्याण हेतु प्रज्ञाप्रेरित हो। इन मूल्यों को न केवल देश-काल के परे सहेजा जाय वरन् जीवन की समग्रता के हित में इन्हें चेतना के समस्त स्तरों पर चिरस्मरणीय बनाये रखा जाये। इससे जीवन महिमामंडित होगा।
प्रायः जीवन के विभिन्न पक्ष हैं शरीर, मस्तिष्क, संवेदन ग्रंथियां, तंत्रिका तंत्र, मनः स्थिति, परिस्थिति, कर्म, सोच, वाणी, अनुभव, व्यवहार आदि। जागृति, स्वप्न और निद्रा हमारी चेतना की तीन स्थितियां हैं।
जीवनसत्ता सृष्टि के मूल में है। उसके बिना कहीं कुछ भी नहीं है। वह समस्त अस्तित्व का मूलाधार है किंतु दृष्य से परे है। जीवनसत्ता की प्रकृति तो आनंदमय-चेतना है। वह परम, चरम और स्थायी स्थिति में आनंद का संकेन्द्रीकरण है, समाहरण है। अतः जीवनसत्ता की कला का सीधा-सपाट अर्थ है कि सभी परिस्थितियों में समग्र प्रसन्नता के साथ जीवन जिया जाये। हमारे मन-मानस से जीवनसत्ता एक क्षण के लिये भी ओझल न हो बल्कि जीवन पर उसी का वर्चस्व हो।
इसका अर्थ है कि प्रकृतिशः जीवन आनंदपूर्ण है और दुःख, दर्द, दबाव, भ्रम और अमरसत्ता के भंवर से मुक्त है। यदि हमारी मनसा-वाचा-कर्मणा, जीवनसत्ता की चेतना हर स्तर पर बनी रहेगी तो जीवन-मूल्यों को अक्षुण्ण रखकर जी सकेंगे। अतः प्रस्थान बिन्दु पर इसे जीवन की अटल गहराइयों में उतारना होगा और फिर अव्यक्त प्रकृति के भावातीत क्षेत्र से सापेक्ष अस्तित्व में बाहर लाना होगा। अतः जीवनसत्ता की कला में निहित तकनीक के दो पक्ष हैं- पहले हम चेतन मस्तिष्क को स्थूल और सापेक्ष अनुभव क्षेत्र से अव्यक्त की ओर स्थानांतरित करने के लिये जीवनसत्ता-क्षेत्र की पड़ताल करते हैं और फिर जीवन मूल्यों से पुष्ट मस्तिष्क को बाहर लाते हैं। अतः सामान्यतः जीवनसत्ता की कला प्राकृतिक रूप से जीने में है। तकनीक या कला क्या है? यह एक ऐसी पद्धति या प्रणाली है जिसे बिना तनाव दबाव के व्यवहार में लाया जा सके। इस प्रसंग में भावातीत ध्यान जीवनसत्ता की कला की व्यवहारिक तकनीक है। आइये इसके लिये जीवन के विभिन्न पक्षों पर चर्चा करें।
जब मस्तिष्क में जीवनसत्ता की चेतना नैसर्गिक यानी स्वाभाविक रूप से रहती है तो हमारी समस्त विचार सृष्टि भी उसी स्तर पर होती है। इसमें जीवनसत्ता और हमारी विचार श्रृंखला का सहअस्तित्व रहता है। जब विचार, जीवनसत्ता के स्तर पर प्रतिष्ठापित हो जाते हैं तो जीवनसत्ता का संचालन स्वभावतः विचार प्रक्रिया के माध्यम से होने लगता है। अतः विचार संदर्भ में जीवनसत्ता की कला आवश्यक रूप से मस्तिष्क की प्रकृति में भावातीत जीवनसत्ता के मूल्यों का समावेश कर देती है।
जीवनसत्ता यानी बीइंग ही विचार स्त्रोत है। विचार प्रक्रिया, मस्तिष्क से अपने आवश्यक स्वभाव यानी जीवनसत्ता से दूर खींचती है। इस प्रकार ऐसा लगता है कि विचार प्रक्रिया जीवनसत्ता की स्थिति की विरोधी है। यही कारण है कि मस्तिष्क जब भावातीत ध्यान में विचार की महीन स्थिति के परे चला जाता है तभी वह जीवनसत्ता की स्थिति पर पहुंच पाता है। जब वह पुनः सोचने लगता है तो उसे जीवनसत्ता के भावातीत क्षेत्र से निकलकर बाहर आ जाना चाहिये।
हमारा चेतन-मस्तिष्क या तो विचार प्रक्रिया में व्यस्त रहता है या फिर पावन जीवनसत्ता की भावातीत स्थिति में। अतः विचारणा, जीवनसत्ता के लिये चुनौती की भांति है। इसका कारण संभवतः यह है कि हमने मस्तिष्क को जीवनसत्ता की स्थिति और विचार प्रक्रिया मे एक साथ रहने के लिये शिक्षित नहीं किया है। मस्तिष्क सदैव सोचने की प्रक्रिया में लगा रहता है। विचारों का संग्राहक है। लेकिन भावातीत ध्यान के अभ्यास से चेतन मस्तिष्क विचार के स्त्रोत तक पहुंच कर जीवनसत्ता की स्थिति से इतना परिचित हो जाता है कि तब इस पावनसत्ता की स्थिति इतनी समभावी और आनंददायक हो जाती है कि फिर मस्तिष्क उसे किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं होता। फिर मस्तिष्क की प्रकृति जीवनसत्ता की प्रकृति में इस तरह परिवर्तित हो जाती है कि वह विचारशील रहकर भी जीवनसत्ता के क्षेत्र में समा जाती है। यह है विचार क्षेत्र में जीवनसत्ता की कला। यदि मस्तिष्क, जीवनसत्ता के क्षेत्र में स्थापित नहीं है तो विचार प्रक्रिया निर्जीव और विचार शक्ति अत्यंत निःशक्त होती है। परिणामतः गतिविधियों के क्षीण होने से उपलब्धियां संतोषजनक नहीं होती और जीवन में आनंद का अभाव हो जाता है। अतः जीवनसत्ता की कला और विचार प्रक्रिया के विज्ञान में तालमेल बैठाना अत्यन्त आवष्यक है। चेतन-मस्तिष्क को जीवनसत्ता की परिधि में लाये बिना जीवनसत्ता को जानने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता। इससे तो चेतन-मस्तिष्क जीवनसत्ता की गिरफ्त में बना रहेगा, उसी में लिप्त रहेगा। तब उसमें जीवनसत्ता का अभाव रहेगा, क्योंकि जीवनसत्ता के विषय में ही सोचते रहना जीवनसत्ता की स्थिति तो नहीं है। हम इस प्रकार मस्तिष्क को विभाजित तो नहीं कर सकते। हमारा मस्तिष्क किसी अन्य विचार को भी पूरी तरह से समाहित करने की स्थिति में नहीं होगा। न तो जीवनसत्ता का प्रभाव पूरी तरह हो पायेगा और न विचार-प्रक्रिया सुदृढ़ होगी।
जीवनसत्ता और विचार-प्रक्रिया में तालमेल के अभाव को सहन करने वाली विचारधारा दिशाहीन है। इससे भ्रम ही उत्पन्न होगा। यह भ्रामक है। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है जीवनसत्ता जीवन का मूलस्त्रोत है जो केवल विचार प्रक्रिया से उपलब्ध नहीं हो सकता। हम जीवनसत्ता की स्वाभाविक स्थिति में क्यों नहीं जी पाते? क्योंकि हम जीवन के भावातीत क्षेत्र से अपरिचित हैं। इसे प्राप्त करने की एक मात्र विधि है कि हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जायें ताकि चैतन्य अवस्था में जीवनसत्ता के क्षेत्र में प्रवेश कर सकें। इसके लिये नियमित अभ्यास की आवश्यकता है।
अब वाणी के विषय में विचार करें। वाणी हमारे विचारों का स्थूल या व्यक्त पक्ष ही तो है। बोलने के लिये सोचने से अधिक ऊर्जा लगती है। इसमें मस्तिष्क पर भी ज्यादा जोर पड़ता है, इसलिये वाणी के स्तर पर जीवनसत्ता की कला विचार-स्तर की अपेक्षा अधिक जटिल है। मस्तिष्क विषयक चेतना-क्षमता के विस्तार को लेकर सोचें। हमारे विचार चेतना के सूक्ष्मतम स्तर से निकलते हैं और धीरे-धीरे विस्तृत होकर चैतन्यावस्था की विचार-श्रृंखला को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। विचारों का बुलबुला ही अंततः चैतन्य स्तर पर वाणी बन जाता है।
मूलतः वाचा, मनसा से बहुत भिन्न नहीं है, केवल मात्रा या सीमा यानी स्केल का अंतर है क्योंकि बोलने में सोचने से अधिक ऊर्जा व्यय होती है। अतः वाणी के स्तर पर जीवनसत्ता की स्थापना विचार स्तर की तुलना में अधिक श्रमसाध्य है। निरंतर अभ्यास के पश्चात् जब जीवनसत्ता की स्थिति वाणी के स्तर पर स्थापित होने लग जाती है, तब समस्त वाणी प्रवाह जीवनसत्ता से होने लगता है और फिर वह ब्रह्मांडीय नियमों के अनुरूप होता है। इससे व्यक्ति का जो विकास होता है वह सर्वत्र समरसता कायम करता है। इस प्रयास में भी मस्तिष्क का विभाजन नहीं करना है कि आधा जीवनसत्ता की सोचे और आधा वाणी को लेकर चिंतित रहे।
हमारी श्वांस-प्रतिश्वांस का भी बहुत महत्व है क्योंकि वे व्यक्तिशः अस्तित्व और ब्रह्मांडीय जीवन के मध्य सेतु का काम करती है। व्यक्ति और ब्रह्मांड का योग है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मांडीय जीवनसत्ता के महासागर से जो लहर उठती है उसी का एक अंश व्यक्तिगत स्तर पर श्वास प्रवाह है। यह अव्यक्त को व्यक्त करने वाली प्रथम हलचल है। प्राण के माध्यम से यह सर्वव्यापी ब्रह्म का स्पन्दन है, प्राण है। श्वास बन कर उसके अनुलोम-विलोम से व्यक्तिगत जीवन के प्रवाह को प्रवाहित रखता है और उसे अपने मूलस्त्रोत यानी परमसत्ता से जोड़ता है।
जीवनसत्ता की कला को श्वसन-प्रक्रिया से कैसे जोड़ें? श्वास का मूल क्या है? वह है प्राण। हमें ज्ञात है कि धरती की उर्वराशक्ति से वृक्ष बनते है। किंतु क्या बीज के बिना यह संभव है? हम कल्पना करें कि भावातीत जीवनसत्ता तो धरती की उर्वराशक्ति के समान है जबकि वृक्ष, व्यक्तिगत जीवन सरिता है, जीवनसत्ता सर्वव्यापी है किंतु व्यक्तिगत जीवन को विशेषता देने के लिये जीवनसत्ता को उसी प्रकार का बीज चाहिये। व्यक्तिगत जीवन का बीज, वृक्ष के बीज की भांति ही है जो कुछ भी नहीं है बल्कि व्यक्त उर्वरता की नितांत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।
जीवनसत्ता, प्राण के रूप में प्रकट होती है। विचार का विकास उसी पर आधारित है। उसी से इच्छा बनती है जिसकी परिणति है कर्म।
वृक्ष और बीज के चक्र की भांति ही है विचार, इच्छा, कर्म तथा कर्मफल का चक्र और उनका प्रभाव। इससे हम समझ सकते हैं कि व्यक्तिगत जीवन, प्राण के माध्यम से वैश्विक जीवन से किस प्रकार अनुप्राणित है।
प्राण, जीवनसत्ता का स्पंदन है। अव्यक्त जीवनसत्ता को स्पंदित होने के लिये किसी बाहरी तंत्र की आवष्यकता नहीं है। वह तो अस्तित्व के विभिन्न क्षण भंगुर चरणों को पार करते हुये स्वयंमेव स्पंदित रहती है, प्राण और मस्तिष्क के संयोजन से जीवनसरिता प्रवाहित है। श्वसन-प्रणाली से जीवनसत्ता को जोड़ने की कला समझने के लिये जीवन-मूल्यों को मस्तिष्क से जोड़ना होगा क्योंकि यह प्रणाली प्राण और मस्तिष्क के योग का परिणाम है। क्या प्राण और मस्तिष्क अलग-अलग हैं? इसका उत्तर है नहीं। इस प्रकार व्यक्तिगत स्थिति को ब्रह्मांडीय स्थिति तक उन्नत करने की सीढ़ी प्राप्त हो जायेगी। महर्षि महेश योगी जी के इस शताब्दी वर्ष में जीवन को आनंद-स्त्रोत बनाने के लिये उसके विभिन्न पक्षों में जीवनसत्ता की प्रतिष्ठापना की कला का वैज्ञानिक विश्लेषण आवश्यक है।


ब्रह्मचारी गिरीश https://www.facebook.com/BrahmachariGirishJi
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

डा. घनश्याम सक्सेना
प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.


Tuesday, October 10, 2017

कैसे करें प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा का उपयोग
ज्ञानयुग के प्रवर्तक महर्षि महेश योगी जी अपने प्रवचनों में बारंबार प्रकृति के नियम (नेचुरल लॉ) और राष्ट्रीय नियमों (नेशनल लॉ) का उल्लेख करते हैं जो मानव गतिविधि के नियंता और निर्देशक हैं। महर्षि जी नैसर्गिक विधान को राष्ट्रीय विधान से भी ऊपर मानते हैं। मानव में निहित सम्पूर्ण संभावनाओं की चर्चा भी महर्षि जी इसी संदर्भ में करते हैं। सर्वविदित है कि हमारी व्यक्तिगत पहचान तो देश, काल और परिस्थिति की सीमाओं में है किंतु व्यक्तिगत जीवन की सीमायें वास्तव में शाश्वत् जीवन के अनहद क्षितिज को छूती हैं। यह समझ में आ गया है कि हम न केवल दैवी प्रज्ञा के अंश हैं, सनातन जीवन-सागर पर एक लहर हैं बल्कि हममें ब्रह्माण्डीय जीवन की थाह लेने की क्षमता है और हम जीवनसत्ता की परमशक्ति का पूरा-पूरा लाभ लेने में भी समर्थ हैं। गुरुदेव श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज, ज्योतिष्पीठोद्धारक शंकराचार्य, बद्रिकाश्रम के आशीर्वाद और भारत की महान संत-परम्परा ने इन भावनाओं को पहले ही रेखांकित कर दिया है। भावातीत ध्यान की सीधी-साधी प्रक्रिया से यह सब संभव है। विकास की धारा में व्यक्तिगत चेतना स्वभावतः बनी रहेगी और व्यक्ति के विकास को आगे बढ़ायेगी।
सर्वशक्तिमान प्रकृति के उपयोग का यह सरल तरीका है। स्वयं को खोकर और सर्वशक्तिमान की शक्ति प्राप्त करके हमारा जीवन परिपूर्ण हो जाता है। यह समर्पण की अवधारणा है। व्यक्ति का जीवन सापेक्ष भी है और परम भी है। व्यक्ति परम जीवनसत्ता के सम्पर्क में पहले से है। अब इसे चेतना के स्तर तक लाना है।
  भावातीत ध्यान बुद्धि और भावना की गांठों से परे है। उसके लिये सहज-सरल प्रकृति चाहिये जो यथार्थतः मानव स्वभाव के मूल में है। भावातीत ध्यान विधि से हम सर्वस्व क्रिया के स्त्रोत-प्रकृति को समर्पित हो जाते हैं और दैवी प्रज्ञा के चरम सचेतन क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। उस स्तर पर पहुंचकर हम प्रकृति की शक्ति का स्वतः मानवीय समझ के स्तर पर, जब तक कि चेतन मस्तिष्क का विस्तार जीवनसता के स्तर पर नहीं हो जाता, तब तक हम सर्वशक्तिमान प्रकृति की शक्तियों का उपयोग नहीं कर सकते। प्रभु के प्रति समग्र समर्पण कभी भी केवल वैचारिक धरातल पर नहीं हो सकता, उसे सदैव जीवनसत्ता के स्तर पर ही होना होगा। चेतन-मस्तिष्क को विचार और भावना के परे जाना होगा। देवी जीवनसत्ता में समावेश के बिना यह संभव नहीं हैं।
समर्पण की अवधारणा को बौद्धिक स्तर पर समझना आसान नहीं है। प्रभु और प्रकृति के प्रति समर्पण से जीवन में अत्यंत उन्नत विचार आते हैं। इससे देश-काल कार्य-कारण वह व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और जीवनसत्ता की असीम सनातन स्थिति प्राप्त हो जाती है। यह भावातीत चेतना से ही संभव है। हरिइच्छा के प्रति समर्पण होना ठीक है। किंतु सापेक्ष अस्तित्व की सीमाओं के परे जाने की विधि के अभाव में शताब्दियों तक यह व्यवहार्थ नहीं था। यह तो मात्र रहस्यात्मक जीवन दृष्टि बनकर रह गया था। भावातीत ध्यान विधि ने इसे व्यवहार्थ बना दिया। इसके अभाव में सर्वशक्तिमान प्रकृति की शक्तियों का उपयोग कल्पना मात्र था। लक्ष्मीपति का बेटा अपनी यौगिक सम्पदा का उपयोग कर सकता है। हम प्रभु के पुत्र हैं तो सम्पूर्ण समर्पण से उनकी प्रभुता का उपयोग कर सकते हैं। भावातीत ध्यान विधि हमें ब्रह्माण्डीय चेतना के स्तर तक पहुंचा देती है। सौभाग्यशाली हैं वे जो इस स्तर तक पहुंच कर ब्रह्माण्डीय जीवनसत्ता से तालमेल बैठा लेते हैं फिर सम्पूर्ण प्रकृति उसकी आवश्यकतानुसार संचालित होने लगती है। उसकी सारी इच्छा ब्रह्माण्डीय उद्देश्य के अनुरूप हो जाती है। उसका जीवन ब्रह्माण्डीय विकास के पथ पर स्वयंमेव चल पड़ता है। प्रभु-चरण में समर्पित होकर वह प्रभु के लिये और प्रभु उसके लिये हो जाते हैं। वह प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा का उपयोग करने लगता है और प्रकृति उसका उपयोग सृजन और विकास के लिये करती है।
कुछ लोग यह काम आत्माओं का आव्हान करके करते हैं। इसके लिये अलौकिक शक्तियों को माध्यम बनाया जाता है किंतु इनमें से किसी के भी पास प्रकृति की समग्र शक्ति नहीं होती। ये मानव से अधिक शक्तिशाली हो सकता है किंतु इस माध्यम को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये। प्रकृति की थोड़ी-सी ऊर्जा इनके माध्यम से मिल सकती है किंतु इसके बदले में ऐसे अलौकिक माध्यम आप पर हावी हो जाते हैं। उद्योगों में पूंजी लगाते समय हम यही तो सोचते हैं कि कम से कम समय और पूंजी लगाकर अधिकाधिक लाभ मिले। आत्माओं से सम्पर्क करके परमात्मा से सम्पर्क नहीं किया जा सकता। ऐसा करके दिशाभ्रम हो सकता है। सही दिशा-निर्देश के अभाव में ऐसा होता है। भावातीत ध्यान सिखाने वाले शिक्षकों की संख्या अभी कम है। इसलिये लोग अलौकिक मार्ग अपनाते हैं-विशेषकर पश्चिमी देशों में। सही दिशा-निर्देश के बिना उच्च शक्तियां प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा बहुतों को असामान्य माध्यम अपनाने की तरफ ले जती है। अतः सही दिशा निर्देश बुनियादी महत्व का है।
कुछ लोग मस्तिष्क पर ध्यान केन्द्रित करके उसे नियंत्रित करने का अभ्यास करते हैं। परंतु इससे भी सीमित सफलता ही मिलती है। यह मानवीय आकांक्षाओं को नष्ट करना है। यदि एक दुर्ग ऐसा है जो अति विशाल क्षेत्र पर नियंत्रण करता है तो क्यों न उसी पर कब्जा कर लिया जाए। फिर उससे नियंत्रित सब कुछ आपका हो सकता है। किन्तु यदि आप उसी क्षेत्र की बहुमूल्य वस्तुओं को अलग-अलग प्रयास करके प्राप्त करना चाहें तो यह समय और ऊर्जा के साथ अन्याय होगा।
समस्त मानसिक शक्तियां जीवनसत्ता का ही अंग हैं। चूंकि हमारे पास जीवनसत्ता से ही प्रत्यक्ष सम्पर्क की विधि है तो फिर हम इतर अलौकिक माध्यमों में क्यों भटकें, मस्तिष्क पर जोर लगाना नितांत आवश्यक है।
अतः सर्वोत्तम उपाय यही है कि समस्त जिज्ञासु वर्ग भावातीत ध्यान विधि का अभ्यास करके अपनी चेतना के स्तर को ब्रह्माण्डीय चेतना के धरातल तक ले जायें। तब वे एक ऐसी स्थिति में आ सकेंगे जहां अप्रयास ही प्रकृति की सर्वशक्तिमान ऊर्जा उन्हें प्राप्त हो जायेगी और जीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा। उनकी समस्त आवश्यकतायें स्वयंमेव पूरी होने लगेंगी।
कुछ लोगों को यह समझाया गया है कि सकारात्मक चिन्तन की शक्ति प्रकृति की सबसे बड़ी शक्ति है। उनसे कहा गया है कि वे अपने जीवन को सकारात्मक विचारों पर आधारित करें। मात्र विचारों पर जीवन को आधारित करना समझदारी नहीं है। केवल विचार ही जीवन का ठोस आधार कभी नहीं बन सकते। जीवनसत्ता ही प्राकृतिक आधार है। भावातीत ध्यान के माध्यम से हम जीवनसत्ता का अनुभव कर सकते हैं। इससे दैनंदिन व्यावहारिक जीवन में सर्वशक्तिमान प्रकृति की ऊर्जा प्राप्त होने की संभावना बढ़ जाती है, जीवन-स्तर का उदात्तीकरण हो जाता है। विचार तो कल्पना मात्र है। विचारों के सुदृढ़ीकरण के लिये भी जीवनसत्ता का अनुभव आवश्यक है।
यद्यपि सकारात्मक विचार नकारात्मक विचारों से उत्तम हैं किंतु केवल उन्हीं पर जीवन आधारित करना काल्पनिक होगा। जीवनसत्ता की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरते। वैचारिक कल्पना तो मृग मरीचिका है। आप विचारों में स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट समझें तो क्या वैसे हो जायेंगे? अतः सकारात्मक विचार फलस्वरूपों को जीवनसत्ता के फलरूपों में रूपान्तरित करना होगा। यह मस्तिष्क का विज्ञान नहीं है, यह तो जीवनसत्ता का विज्ञान है। अन्य सभी विधियां तो छलावा हैं। हवा में किले बनाने की तरह हैं।
मस्तिष्क नहीं बल्कि जीवनसत्ता की शक्ति ही जीवन का वास्तविक आधार है। वह तो मस्तिष्क की पूरक है। समस्त भौतिक विज्ञान सापेक्ष क्षेत्र में है। मानव भी अस्तित्व के सापेक्ष क्षेत्र में ही है। सभी विज्ञानों की भांति मस्तिष्क का विज्ञान भी जीवन के सापेक्ष क्षेत्र का विज्ञान है। जीवनसत्ता का विज्ञान सनातन अस्तित्व का विज्ञान है। अतः जीवनसत्ता का शक्ति प्राप्त करना अपेक्षित है। इस शक्ति को भावातीत ध्यान विधि के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह तुरीय चेतना प्राप्ति की विधि है। यह विधि नितान्त सहज और सरल है तथा इसका अभ्यास नियमित करना श्रेयस्कर है।


ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,
भारत का ब्रह्मस्थान, म.प्र.

डा. घनश्याम सक्सेना

प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक, भोपाल, म.प्र.

Wednesday, October 4, 2017

जीवन की गुणवत्ता बनाती है परिस्थितियों की गुणवत्ता

भारत की अविच्छिन्न संत-परम्परा में परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी का एक अद्वितीय स्थान है। महर्षि जी एक व्यावहारिक संत रहे हैं औरआजऔरआपको बुनियादी महत्व देते हैं।आजअर्थात् वर्तमान हमें प्रभु का उपहार है।आपअपने जीवन में आई किसी भी स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः इस आज और आप का सम्पूर्ण सदुपयोग होना चाहिये। हमारा उत्तरदायित्व तो सीमित है लेकिन परमात्मा की कृपा असीम है। यह अनुभव ही हमारा शिक्षक और मार्गदर्शक होना चाहिये। एक दिव्य उपस्थिति का अनुभव हमारे अस्तित्व का अविच्छिन्न किंतु मूल अवयव हैः
चलूं तो ऐसा लगे कोई मेरे साथ चले।
रूकूं तो कांधे पे जैसे किसी का हाथ लगे।।
आकर्षण के लिये विकर्षण आवश्यक है। काम के लिये आराम आवश्यक है। अपना सर्वोत्तम संसाधन हम स्वयं ही हैं, काम करें तो पूरी निष्ठा से करें या फिर करें। चाहे हमारे पास सारे उत्तर भले ही हों लेकिन क्या हमारे पास सही प्रश्न हैं? क्या हम अपने वातावरण, पर्यावरण, अपने समय और अपनी स्थिति-परिस्थिति को जानते हैं? इनका पूरा-पूरा उपयोग करने के पहले इन्हें जानना आवश्यक है। ये परिस्थितियां आखिर कैसे बनतीं हैं? ये तो हमारी स्थिति के अनुरूप अलग-अलग होती हैं- घर में अलग तो कार्यालय में अलग। कुछ हम जानबूझकर सप्रयास बनाते हैं और कुछ अनजाने में अप्रयास बन जाती हैं। मित्र तो सप्रयास बनाते हैं किंतु शत्रु कभी-कभी अनायास बन जाते हैं।
इस बिन्दु पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि परिस्थितियों का अनायास निर्माण कर्म-सिद्धांत के अनुरूप है। हमारे वर्तमान अभिप्राय और प्रयास के स्त्रोत हमारे अतीतकालीन प्रभाव में होते हैं। चूंकि वर्तमान अभिप्राय अतीत मूलक हैं अतः हमारी परिस्थितियां अतीत और वर्तमान से मिलकर बनती हैं। हो सकता है कि लोगों से हमारे संबंध खराब हों। वे, हमारे विषय में अच्छा बोलते हों। हो सकता है कि हमने किसी का कुछ भी बिगाड़ा हो किंतु फिर भी हमारे विषय में गलतफहमियां हों तो इसे लेकर क्या स्पष्टीकरण देंगे? दुनिया जैसी है उसे वैसे ही लेना होता है, बुरे-भले का दायित्व हमारा स्वयं का है। इसलिये हमारे सुख-दुःख के लिये हमारी परिस्थितियों से कहीं अधिक हम ही उत्तरदायी हैं क्योंकि अंततः हम ही इनके निर्माता हैं।
अब फिर हम क्या करें? घर बनाते समय उद्यान लगाया तो उसकी शीतल हरीतिमा से प्रसन्न रहें। यदि उद्यान नहीं लगा तो उसके अभाव का दुःख भूलकर कमरों की ऊष्मा से आनंद लें। यही एक उपाय है अपनी परिस्थितियों के सर्वोत्तम उपयोग का।
स्वनिर्मित परिस्थितियों को स्वभावतः हम अपनी इच्छापूर्ति में सहायक मानते हैं। परिस्थितियों से लेने की यह तकनीक देने की मनोवृत्ति में है, प्रकृति का नियम है कि लेना है तो देना होगा। जो बोते हैं वही काटते हैं। उत्पादन से उपभोग होता है, माता-पिता अपनी संतान को सुरक्षा और स्नेह देते हैं और उसके बदले संतान के सुख से सुखी होते हैं। प्रेम से प्रेम और घृणा से घृणा मिलती है। एक बालक से भी प्रेम या कड़ाई के व्यवहार की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। यही है कार्य-कारण या क्रिया-प्रतिक्रिया का सिद्धांत। यदि किसी के प्रति हमारे कर्म की सीधी प्रतिक्रिया नहीं होती है तो भी अप्रत्यक्ष प्राकृतिक प्रतिक्रिया पक्की समझिये। अतः हम अपनी परिस्थितियों से जो प्रतिक्रिया स्वयं के लिये चाहते हैं हमें उनके प्रति भी वही क्रिया करना चाहिए। परिस्थिति के सर्वोत्तम उपयोग का एक ही सूत्र है कि हम अपने लिये जो चाहते हैं उसके लिये भी वही करें।
प्रकृति के नियमों को झुठलाया नहीं जा सकता। यदि कोई व्यक्ति हमसे ईर्ष्या करता है तो या तो हमने उससे ईर्ष्या की होगी या फिर किसी और से। अपना हृदय टटोलें तो सभी पता चल जायेगा। हमारी परिस्थितियां हमारे कर्मों का ही परिणाम हैं- वर्तमान के नहीं तो अतीत के। अतः यह आवश्यक है कि हम अच्छा सोचें, अच्छा करें। अंतरात्मा से शुद्ध रहें। उत्तम ऊर्जा स्थानांतरित होगी। हमारा वातावरण और अच्छा हो जायेगा। जब हम किसी बुराई का प्रतिकार उसी प्रकार करते हैं तो हम उसी बुरे निचले स्तर पर जाते हैं। बाहर का शिष्टाचार तो ठीक है किन्तु आंतरिक सद्व्यवहार हमारी परिस्थितियां बनाता है। इसके पश्चात यदि कुछ बुरा होता है तो उसके पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम या भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करें। हममें कमियां हो सकतीं हैं। प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। लेकिन यदि दाल में नमक के बराबर या सिन्धु में बिन्दु की भांति हो तो चलेगा। सहनशक्ति, प्रेम, मन की पवित्रता, क्षमा और निष्ठा ऐसे मूलाधार हैं जो हमें अपनी परिस्थितियों से आनंद प्राप्त करने में समर्थ बनाते हैं। यह जीवन में देने का मूल सिद्धांत है। वस्तु जगत और भावजगत में एक तुरीय चेतना का निवेश हो जाता है जो हमें हमारे मूल अर्थात् जीवनसत्ता से जोड़ देती है।
परिस्थितियां दो प्रकार की होती हैं - जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव। कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में कुछ भी निर्जीव नहीं है। भौतिक विज्ञान तो यही बताता है। सब में कम्पन्न, संवेदना और गति है, सबके भीतर ऊर्जा है। फिर भी सापेक्ष अस्तित्व के क्षेत्र में हम जड़ तथा चेतन का भेद करते हैं। घर को जड़ मानते हैं। गौ को चेतन परन्तु दोनों सर्वोत्तम उपयोग के लिये परस्पर महत्व का सिद्धांत ही फलप्रद है। अतः यदि हम परिस्थितियों का सदुपयोग करना चाहते हैं तो हमें भी उनके प्रसंग में सदुपयोगी होना पड़ेगा। घर और बगीचा दोनों जड़ हैं। लेकिन उन्हें सजाने, उनकी देखभाल करने और सामयिक रख-रखाव से वे भी हमारे आनंद के स्त्रोत हो जाते हैं। एक बीज कई गुनी उपज देता है। यही बात हमारे व्यवहार के साथ भी है। एक अन्य संदर्भ में विचार करें तो वहां भी दो प्रकार की परिस्थितियां हैं- समीपस्थ और दूरस्थ। समीपस्थ हमारी वाचा-कर्मणा का परिणाम है। यह हमारे व्यवहार से प्रभावित होती है। फूल तोड़ कर पानी में रखें तो कुछ समय चलेगा। यूं ही छोड़ेगें तो मुरझा जायेगा। लेकिन दूरस्थ परिस्थितियां हमारी भावनाओं और विचारों से प्रभावित होती हैं। हम ध्यान से समझें तो सात समुद्र पार हमारे दूरस्थ मित्र या संबंधी के हृदय या मस्तिष्क की भावना हमारे हृदय और मस्तिष्क की भावनाओं के अनुरूप ही होगी। विचारों की तरंगे वचन और कर्म की तरंगों से कहीं अधिक शक्तिशाली होती हैं। यद्यपि विचार, वचन और कर्म अर्थात मनसा-वाचा-कर्मणा से उत्पन्न तरंगे वातावरण में रहती हैं किंतु विचार-तरंग बहुत गहरी जाती है। यही कारण है कि हम जैसा सोचते हैं हमें वैसा ही मिलता है, हमने समझा है कि विचार और कर्म, ब्रह्माण्ड को कैसे प्रभावित करते हैं और हमारे व्यक्तिगत विचार और कर्म पर वैसी ही ब्रह्माण्डीय प्रतिक्रिया होती है। हमारे वातावरण की गुणवत्ता हमारे जीवन की गुणवत्ता के अनुसार ही होती है, यदि हम लेने के पहले देने के सिद्धांत से निर्देशित हैं तो परिणाम उसी अनुपात में होते हैं। हम जो देते हैं उसे हमारी परिस्थितियां विभिन्न रूपों में हमें लौटाती हैं। कुछ लोग कहते है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास है किंतु यथार्थतः परिस्थितियों का स्थायी होना हमारे स्वयं के वश में है। इसलिये भावातीत ध्यान आवश्यक है क्योंकि वह हमारी अंतररात्मा और जीवनसत्ता से हमें जोड़ता है। हमें वह सब अनुभव होने लगता है जो एकाग्रता तथा आत्मानुशीलन के अभाव में अनुभव नहीं हो पाता था। हमें एक ऐसी आनंद-चेतना की प्राप्ति होने लगती है जो जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप परिस्थितियों की अनुकूल प्रतिक्रिया सुनिश्चित कर देती है, समग्र चैतन्य व्यक्ति में ब्रह्माण्डीय चेतना का प्रवेश हो जाता है। तब हम मन मस्तिष्क से जीवनसत्ता के स्तर पर जाते हैं, यही वह स्तर है जिससे नौसर्गिक नियम सभी प्रकार के विकास को स्वयंपोषित बना देते हैं।
ब्रह्मचैतन्य व्यक्ति मनसा-वाचा-कर्मणा ब्रह्म-निर्देशित होता है। वह व्यक्ति होते हुये भी भगवान का यंत्र बन जाता है। ऐसे प्राणी की परिस्थितियां स्वयंमेव अनुकूल रहती हैं। हम बलपूर्वक अर्थात पुरूषार्थ मात्र से केवल आंशिक और अस्थायी सफलता ही पा सकते हैं। चक्रवर्ती सम्राट भी अपनी परिस्थितियों और अंतरनिहित संभावनाओं का सम्पूर्ण उपयोग शायद ही कर पाये हों। इसके लिये प्रकृति से तालमेल बैठाना होता है। चेतना का स्तर बढ़ता है। फिर हम भावातीत-तुरीय चेतना तक पहुंच जाते हैं। इस मानसिक और आध्यात्मिक स्तर को प्राप्त करने के लिये ही भावातीत ध्यान पद्धति का सहारा लेना होता है। उसके द्वारा हम शनैः शनैः अपने भीतर उतर कर उन अथाह गहराइयों का स्पर्श करने लगते हैं जो आत्म-साक्षात्कार का एक मात्र माध्यम है। वर्तमान मनोविज्ञान हमें मानवीय संबंधों और अंतरक्रियाओं के अनेक पाठ पढ़ाता है लेकिन मात्र भौतिक सुझाव हमें हमारी परिस्थितियों का सदुपयोग नहीं सिखा सकते है। उनमें केवल लेना ही लेना है। जबकि हमें प्रकृति के अनुकूल बनकर और स्वयं का परिचय प्राप्त करके देना भी सीखना है। हृदय और मस्तिष्क की गुणवत्ता के सहारे निष्ठावान होने से सब कुछ मिल जाता है। जब कोई त्रासदी होती है तो सुझाव या संवेदना काम नहीं करते। मन में उथल-पुथल रहती है। लेकिन भावातीत ध्यान मन को स्थिर करके शांति देता है जो परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में निर्णायक योगदान देती है।

ब्रह्मचारी गिरीश
कुलाधिपति, महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय, मध्य प्रदेश एवं
महानिदेशक-महर्षि विश्व शान्ति की वैश्विक राजधानी,

भारत का ब्रह्मस्थान, .प्र.