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Sunday, September 17, 2017

असली बनाम नकली बाबा

कौन व्यक्ति या बाबा या संत या साधु या महात्मा या ऋषि या मुनि वास्तविक है, सच्चा है और कौन नकली है, ढोंगी है यह कहना अत्यन्त कठिन है। अभी तक आधुनिक विज्ञान कोई यन्त्र तैयार नहीं कर सका जो मनुष्य की चेतना और मस्तिष्क को पूर्णतः नाप ले। शायद मानव चेतना ही मानव के मन और मस्तिष्क को नापने में पूर्णतः सक्षम है।
बड़ी विचित्र बात है कि अत्यन्त साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि में जन्मे, पढ़े, बढ़े कुछ व्यक्ति पूर्ण विकसित चेतनावान हो जाते हैं। वे महात्मा, सिद्ध, साधु, संत, ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि का स्थान प्राप्त करते हैं। ऐसा इसलिए कि वे सामाजिक विषयों के झंझावात से दूर रहकर ज्ञान प्राप्ति और साधना में समय लगाकर अपनी चेतना की उच्चावस्थाओं को प्राप्त करते हुए ब्राह्मीय-चेतना को प्राप्त करते हैं, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का अनुभव करते हैं। उनके लिए ‘अयमात्माब्रह्म’, ‘सर्वंखलुइदम् ब्रह्म’, ‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’ ही सबकुछ होता है। उनका चिन्तन, मनन, मनोविज्ञान, मनोरंजन, दृष्टि सब कुछ केवल आत्म-केन्द्रित होती है, आत्मा ही इनका संसार होता है। ये वृक्ष के तने, डाली, पत्ती, फूल और फल का सिंचन नहीं करते, ये केवल वृक्ष की जड़ में जल का सिंचन करके वृक्ष को पूर्णता प्रदान करते हैं। ये आत्मतत्व का सिंचन करते हैं और जीवन की पूर्णता पाते हैं। इन्हें संत, महात्मा, महंत, महामण्डलेष्वर अथवा किसी भी पद की प्राप्ति में कोई रूचि नहीं होती, ये तो ब्रह्म की ब्राह्मीय चेतना का अनुभव करते-करते ब्रह्म ही हो जाते हैं, तो फिर प्राप्ति के लिए बचा ही क्या? ये तो केवल देने के लिए होते हैं, परमार्थ के लिए होते हैं और यह परमार्थ भी उनके जीवन में स्वाभावतः आता है, उसके बदले में कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं रखते। किसी भी प्रकार का लोभ, मोह, कामना, इच्छा, अहंकार से ये अछूते रहते हैं। धर्म की जागृति, अध्यात्म की जागृति, आधिदैविक अराधना, मानवता की सेवा उनका परमधर्म बन जाता है और सेवा भी कैसी? जो ज्ञान और साधना पर आधारित हो। एक ओर अज्ञान को मिटा कर जीवन में ज्ञान का प्रकाष भरकर मोक्ष के मार्ग तक पहुँचा देना और दूसरी ओर साधना का क्रम देकर साधक को ज्ञान की अनुभूति कराकर, चेतना-आत्मा की पूर्ण जागृति कराकर जीव को ब्रह्म बना देना। समस्त नाकरात्मकता और अन्धकार को ध्वस्त करके, शमन करके मानव को जीवन के परम लक्ष्य भवसागर से पार लगाने, मोक्ष-निर्वाण की प्राप्ति कर लेने का मार्ग प्रशस्त कर देना, यह एक वास्तविक-असली गुरू का कार्य है, उसकी पहचान है, उसकी गम्भीरता है, मर्यादा है, महत्ता है और तभी वह परम पूज्य है, वह ब्रह्मा है, विष्णु है और महेश है, परमब्रह्म है। 
वैदिक काल के वास्तविक गुरूओं की महत्ता रही है, इसमें ब्रह्मर्षि वशिष्ट, महर्षि व्यास, महर्षि पाराशर और आदि शंकराचार्य का उदाहरण दिया जा सकता है। इनके अपने समय में ज्ञान और साधना के संरक्षण, संवर्धन, प्रचार, प्रसार, उत्थान का जो ऐतिहासिक कार्य इन्होंने किया है, वह आगे आने वाले अनन्त काल तक जनमानस के लिए हितकारी होगा। 
अब दूसरी श्रेणी पर विचार करते हैं। इच्छाओं, कामनाओं, माया, मोह, लोभ, अहंकार से आभूषित स्वयंभू महात्मा। इनके पीछे कोई ज्ञान या साधना की गुरू-परम्परा, मार्गदर्शन, शिक्षण, प्रशिक्षण कुछ नहीं होता। पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और माया की कामना के वशीभूत होकर ये अहंकार के नाशवान क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। माया के उसी प्रभाव से इनकी बुद्धि, विवेक और धैर्य क्षीण या समाप्त हो जाता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि अष्ट प्रकृतियों का प्रारम्भ भूमि-पृथ्वी से होता है और अहंकार तक जाता है। ये भूमि से उठते हैं और क्रमषः आकाश के स्तर तक पहुँचते-पहुँचते अभिमान से लद जाते हैं। यह सर्वविदित है कि जब तक ‘स्वाभिमान’ रहता है तब तक तो मन और बुद्धि नियंत्रित रहती है और जैसे ही  ‘स्व’ हटकर केवल ‘अभिमान’ बचा रहता है तो यह मनुष्य को त्वरित गति से सीधे पृथ्वी पर गिरा देता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भूमि से उठकर आकाश तक का अनुभव होने से मन भटकने लगता है, कामनाओं का बवंडर उमड़ने लगता है, कामनाओं की पूर्ति की गति कामनापूर्ति की इच्छा से न्यून होने के कारण क्रोध की उत्पत्ति होती है, क्रोध बुद्धिभ्रम उत्पन्न करता है, बुद्धि तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके असफल-सफल होते हुए अहंकार-अभिमान को प्राप्त होती है और यही अहंकार नाम, मान-सम्मान, मर्यादा, गंभीरता, सफलता, धन-सम्पदा, उपलब्धियों और समस्त प्राप्तियों का विनाश कर देता है। 
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्ट कर दिया है :- 
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सज्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंषाद् बुद्धिनाषो बुद्धिनाषात्प्रणष्यति।।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैष्चरन्।
आत्मवष्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
तिकड़म, जुगाड़, धनबल, बाहुबल, जनबल, मनबल, परमपूज्य का महत्तायुक्त स्थान सबकुछ काल के गाल में समा जाता है। रह जाता है तो एक कलंकित जीवन जो केवल उपहास, अपमान, अपराध वृत्ति के दुष्परिणाम, भय, सूनापन, दुःख पश्चाताप की काल-कोठरी में नारकीय दण्ड देने वाला होता है। तब तक बहुत विलम्ब हो चुका होता है। भौतिक जीवन की चकाचौंध और माया का आवरण ज्ञान चक्षुओं पर पट्टी बांध देता है और बुद्धि व तर्क क्षमता को कुंठित कर देता है। 
भोग तो भोगना ही पड़ता है, जीवन जीने की इच्छा समाप्त हो जाती है, व्यक्ति मृत्यु की इच्छा करने लगता है, तब ज्ञान पुनः उपजता है, अपने इष्टदेव की स्मृति आती है, रातदिन उन्हें ही जपता है, भजता है, स्मरण करता है। देवता तो अति दयालु होते हैं। पापकर्मों के कट जाने पर अर्थात् प्रायश्चित पूर्ण हो जाने पर याचक को दया का दान देकर अपने लोक में स्थान प्रदान करते हैं। यह नकली स्वयंभू बाबाओं की कहानी है। 
श्री गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है- भोले भाव मिले रघुराई। चतुराई न चतुर्भुज पाई।। 
एक तीसरे तरह के संत महात्मा भी हमारे अनुभव में आये हैं। किसी कारणवश, भाग्यवश, पूर्व कर्मों के फलस्वरूप, पारिवारिक अथवा सामाजिक स्थितियों के चलते व्यक्ति कुमार्ग पर चला जाये और अपराध या पाप कारित करे किन्तु किसी घटना से प्रभावित होकर उसका हृदय दृवित हो जाये, मन में वैराग्य जाग जाये, वह अपना शेष जीवन ज्ञान प्राप्ति, साधना, अध्यात्म जागृति, यज्ञ यज्ञादि, जनकल्याण में लगाना चाहे तो उसे अवसर अवष्य प्रदान किया जाना चाहिए। वैदिक इतिहास में महर्षि वाल्मीकि इसका परम उदाहरण हैं। डाकू रत्नाकर के जीवन में एक घटना घटित होकर उसे महर्षि बना देती है, आदि कवि बना देती है, ब्रह्म बना देती है। ‘उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना’। राम को उल्टा भजने वाले पर भी श्रीराम जी की ऐसी कृपा हुई कि श्रीराम की अमर गाथा लिख वे स्वयं अमर, इतिहास पुरूष, पूज्य हो गये।
ऐसे अन्य उदाहरण भी हमारे वैदिक वांगम्य में वर्णित हैं। अजामिल तो ‘नारायण’ को केवल स्मृत कर पार पा गया। राजा बलि अहंकार त्याग परम भक्त हो गये। यदि वर्तमान के सिद्ध साधु-संत विकृत मन, बुद्धि और चेतना से ग्रसित भव रोगी नकली बाबाओं को ज्ञान की दृष्टि देकर, साधना क्रम में ले जाकर उनकी चेतना का विकास कर दें, उन्हें ‘अयमात्मा ब्रह्म’ की वास्तविकता समझा दें, तो सन्तों की यह महती कृपा होगी, समाज सुधार में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान होगा। ‘सठ सुधरत सत संगत पाई’ का प्रमाण तो है ही हमारे यहां।
कलिकाल का प्रभाव, रजोगुण-तमोगुण की अधिकता, सतोगुण की कमी, सकारात्मकता की तुलना में कालवश  नकारात्मकता का तीव्रतापूर्वक प्रसार, मानसिक व शारीरिक रोगों का फैलाव, तनाव, थकावट, ईर्ष्या, बदले की भावना, स्वयं को उच्चासन पर विराजित करने की लालसा, पद-प्रतिष्ठा और धनबल से बाहुबल का आनन्द लेने की इच्छा, राजनीति में भाग्य आजमाइष, कामनाओं की पूर्ति के लिए अनुचित साधनों और मार्ग का चयन, यह सब लक्षण या दुर्गण एक सद्चरित्र मनुष्य को अपने कर्तव्य पथ से भटका देते हैं और इन भटके हुए कुमार्गियों को ही हम नकली या छद्म बाबा कहने लगते हैं क्योंकि इनके जीवन में त्याग और तपस्या का स्थान ऐष्वर्य और भोगमय क्षणिक आनन्द ले लेता है। 
हमारा भारतीय सनातन वैदिक ज्ञान विज्ञान सक्षम है कि उसके सिद्धाँत व प्रयोगों से हम व्यक्ति एवं समाज की सामूहिक चेतना को पूर्णतः सतोगुणी बना दें, सकारात्मक बना दें जिसके प्रभाव में रजोगुणी व तमोगुणी प्रवृत्तियों का शमन हो सके। परम पूज्य महर्षि महेष योगी जी ने विष्व के शताधिक देषों में भारतीय सनातन, शाश्वत ज्ञान-विज्ञान और साधना की पताका फहराई है। स्वामी विवेकानन्दजी के स्वप्नों को महर्षि जी ने साकार कर दिखाया।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि यह कौन निश्चित करे कि असली कौन है और नकली कौन? क्या आम जनता? नहीं। शिष्य, भक्त तो अपने गुरूजी को ही आदर्श मानते हैं, बाकी सब उनके लिये कोई अर्थ नहीं रखता। शिष्यों और भक्तों की आस्था सर्वोपरि होती है। राजनेता? नहीं। धर्म में राजनीति नहीं होनी चाहिए। राजनीति को धर्म पर आधारित होना चाहिए जिससे उसमें सात्विकता बनी रहे। भारतीय इतिहास में स्पष्ट उल्लेख है कि जो राजा-महाराजा धर्मपरायण रहे, उन्होंने सफलतापूर्वक अपनी प्रजा का पालन किया, राज्य का विस्तार किया और निर्विवाद संचालन किया। जो अधर्मी हुये, वे प्रजा के कोपभाजन बने और प्रकृति के भी, समय ने उन्हें विस्मृत कर दिया, कोई महत्व नहीं दिया। यदि साधु-संतों पर यह कार्य छोड़ना हो तो पहले यह तय करना होगा कि वे कौन साधु-सन्त होंगे? उनमें से कौन ज्ञानी, साधक, प्रबुद्ध, सात्विक, त्यागी, तपस्वी, निःस्वार्थी है। यह कौन तय करेगा? एक समाधान यह है कि भगवान शंकराचार्य ने चार मठ बनाकर सनातन धर्म के चार सर्वोच्च धर्माचार्य नियुक्त किये थे और उनका क्षेत्राधिकार बाँटकर उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में धर्म स्थापना का कार्य सौंपा था। कायदे से यह होना चाहिए कि जब कभी ऐसा प्रश्न उठे, अपने-अपने क्षेत्र के शंकराचार्य अपने क्षेत्र की साधु-संतों की समिति के साथ मिलकर अपना निर्णय दें। किन्तु अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज तो चार शंकराचार्य पीठों में से तीन विवादास्पद हैं। एक-एक पीठ पर दो-दो, तीन-तीन संत अपना अधिकार जता रहे हैं। अभी तक यह प्रश्न ही है कि उनमें वास्तविक शंकराचार्य कौन है? विभिन्न न्यायालयों में दशकों से यह प्रश्न विचाराधीन है। जब यही ज्ञात नहीं है कि असली शंकराचार्य कौन है तो उनसे मार्गदर्शन प्राप्ति का प्रश्न ही नहीं है। अतः शंकराचार्यों के मार्गदर्शन की यह सम्भावना भी समाप्त हो गई।
असली बनाम नकली बाबाओं की जो बात उठी है वह अखाड़ों की परिषद् के अध्यक्ष ने उठाई है। समाचार पत्रों एवं टीवी न्यूज चैनल्स् से ज्ञात हुआ है कि उन्हांने 14 फर्जी-नकली बाबाओं की सूची जारी की है। जब इस विषय पर कुछ विद्वानों, महात्माओं और पत्रकारों से बात हुई तो उन्होंने बताया कि आखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष असली हैं या नहीं यह भी निश्चित नहीं है। कोई अन्य महात्मा ने स्वयं को इस अध्यक्ष पद पर होना घोषित किया है। तब प्रश्न यह है कि कौन कहाँ फर्जी है या असली है, इसका निर्धारण कैसे हो? यह भी बताया गया कि इन्हीं अध्यक्ष महोदय ने एक व्यवसायी को अपने अखाड़े का महामण्डलेष्वर बना दिया था और फिर शोरगुल होने पर इन्हें अपना निर्णय वापस लेना पड़ा।
अब यह प्रश्न रह गया कि नकली और असली का निर्णय कौन करे। यदि समस्त अखाड़ों के प्रमुख आचार्य आपस में एकमत होकर परिषद् के अध्यक्ष, सचिव आदि का चयन करलें तो सर्वोत्तम है अन्यथा हम भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो समस्त अखाड़ों के प्रमुख आचार्य गोपनीय मत देकर परिषद् के पदाधिकारियों का चुनाव कर सकते हैं।
परिषद् के अधिकारियों के कर्तव्य व अधिकारों की एक आचार संहिता भी बनाई जा सकती है। एक अन्य सामान्य आचार संहिता भी बनाई जा सकती है जिसका पालन समस्त साधु संत करें और समय-समय पर सब मिलकर समयानुसार इसमें आवश्क्यतानुसार संशोधन करें। आशा करनी चाहिये कि एक नियमबद्ध आचार संहिता का पालन सभी साधु, संत, महात्मा करेंगे और भविष्य में असली नकली का मुद्दा नहीं उठेगा। जो आचार संहिता के अनुरूप आचरण करेगा वो असली अन्यथा नकली। इस तरह के प्रश्नों और नकारात्मक प्रचार से जनमानस के मन में संशय होता है, संतों के प्रति, धर्म के प्रति अनादर भाव उठता है। उनके कोमल मन, आस्था, विश्वास और भरोसे पर गहरी चोट लगती है, उन्हें दुःख होता है।
भारत में ज्ञानवान संतों की कमी नहीं है, वे सक्षम हैं मार्गदर्शन करने के लिये और उनके निर्देशन में यह आचार संहिता सन्त समाज के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी आषा है। यह भी मान्यता है कि साधु सन्त तो किसी धारा, नियम, संहिता से बंधे नहीं होते। प्रकृति की पावन धारा में प्रकृति के नियमों में, अध्यात्म में, धर्म के क्षेत्र में अति संयमित व्यवहार करते हुए वे पूर्णतः स्वतंत्र होकर अविरल ज्ञान और साधना की विशुद्ध सरिता की भाँति नित्य प्रवाहित होते हैं और अपने शिष्यों, भाक्तों का कल्याण करते हैं। यही उनकी पूर्णता और संत प्रवृत्ति का वैदिक प्रमाण है। समस्त संतों, साधुओं, महात्माओं, मुनियों, ऋषियों, महर्षियों, ज्ञानियों, विद्वानों के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।




ब्रह्मचारी गिरीशमहर्षि महेश योगी संस्थान